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गंगा / 2 / संजय तिवारी

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पिता
जब सृष्टि रच रहे थे
व्याधियों से बच रहे थे
मुझे शिखर पर बिठाया
जगत को दिखाया
सनातन प्रत्यूषा
शिव की मंजूषा
मुक्ति की एकमात्र साधन
युक्तिपूर्ण आराधन
जिस जटा में सामर्थ्य थी
रोकने का प्रवाह
और वेग प्रचण्ड
नही कोई घमण्ड
मेरी अकुलाहट
छटपटाहट
और आहट
सभी कुछ पहचान गया
मैं केवल उसी की थी
हूँ
रहूँगी
सब जान गया
शिखर से सागर की मेरी उतरन
शिव जानते हैं
मेरी करुणा
पीड़ा
तपस्या
क्रीड़ा
पहचानते हैं
पार्वती की जलन
बर्फ की यह गलन
मेरी अविरलता
मेरी तरलता
मेरी सत्ता, मेरी गति
मेरी मर्यादा, मेरी मति
 मुझ मंद अंकिनी का मान
स्वयम शिव के ही समान
नदी हूँ
बहुत प्यासी हूँ
मुक्तिदायिनी हूँ
पर दासी हूँ
इसीलिए तड़पती हूँ
सागर तक आते ही
पूरी शक्ति से उफनती हूँ
शीर्ष से समाज तक
सृष्टि से पूर्व और इस युग मे आज तक
उतरते उतरते बहुत नीचे
मैंने बड़े चित्र खींचे
चाहे जितना नीचे आयी
खुद को केवल वही पाई
शिव की जटा
शिखर कैलाश का
जगत के शीर्षतम आकाश का
यह शिव का सामर्थ्य
याकि
शिव के लिए मेरी महत्ता
पार्वती शक्ति बनी
दोनों में कई बार ठनी
पर
मैं
करती रही शिवशीर्ष पर नृत्य
नखरों से
 इतराती
बलखाती
अकुलाती
कुछ शोदित
कुछ बहाती
बहती जाती
सहती जाती
मेरे भीतर की आह
प्रचंड प्रवाह
गहराई अथाह
मेरी अपनी हर चाह
खुद की राह
मेरा इतराना
ऐठना
बलखाना
सब देखा और सहा
कभी नही कुछ कहा
मैं अब सोच रही हूँ
शिव के लिए केवल गंगा
एक नदी बार नही हूँ
युगों से परे हूँ
एक सदी भर नही हूँ
श्रुतियों की श्रुति हूँ
युगों की गति हूँ
मर्यादाओं की मति हूँ
उन्ही की हूँ
उन्ही में समाई हूँ
सृष्टि में इसीलिए आयी हूँ
सगर पुत्रो का तारना
एक बहाना है
मैंने शिद्दत से अब जाना है
शिवि हूँ
तनीषा हूँ
नीलकंठ की
मनीषा हूँ।