भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गरमी / गिरिजा अरोड़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरज ने बरसाई आग
धरती जलने लगी
हवा हो गई रूखी
रुख वो बदलने लगी

प्यासे हुए प्राण
त्राहि त्राहि कर उठे
पाखी से ह्रदय
ओट वृक्ष की चले

स्वेद कण बन झर पड़े
आशा, स्वप्न, तेज, खुशी
सम्मानित डालियाँ भी
रसहीन दिखने लगी

हो गए धातु सरीखे
देह और दिल तभी
दूरी बढ़ती निरंतर
तापमान के बढ़ते ही

बूंद की सामर्थ्य, उस समय
बचा दे घरौंदे कई
उतर के कभी अंबर से
और आँखों से कभी