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गली-कूचे, मोहल्ले, शहर वीराँ होते रहते हैं / 'महताब' हैदर नक़वी

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गली-कूचे, मोहल्ले, शहर वीराँ होते रहते हैं
पस-ए-ख़्वाब-ए-तमन्ना1 हम पशेमाँ2 होते रहते हैं
 
लड़ा करते थे पहले आसमानों से, ज़मीनों से
अब अपने आप से दस्त-ओ-गिरेबाँ3 होते रहते हैं
 
कहीं बाद-ए-ख़िज़ानी4 बस्तियों में रक़्स करती है
कहीं आबाद भी शहर-ए बियाबाँ होते रहते हैं
 
यही तोज़ख़्म-ए-दिल की सुर्ख़रूई5 का ज़माना है
इसी मौसम में ये गुल से गुलिस्ताँ होते रहते हैं
 
हमें मंज़ूर है बस इसलिये दुनिया से यारी है
यहाँ मेहर-ओ-मह-ओ-अख़्तर6 दरख़्शाँ7 होते रहते हैं
 
कि जिसके नाम से यह शायरी परवान चढ़ती है
उसी के नाम से हम भी नुमाया होते रहते हैं

1-इच्छा स्वप्न के पीछे, 2-लज्जित, 3-हाथापाई 4-पतझड़ की हवा, 5-सम्मान, 6-सूरज चाँद और तारे 7-चमकते हुए