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ग़म अभी तक ज़ीस्त में ठहरा न था / गिरधारी सिंह गहलोत

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ग़म अभी तक ज़ीस्त में ठहरा न था।
इश्क़ की वादी में जब कुहरा न था।

कोशिशें कितनी हजारों बार की
पर मुहब्बत का अलम फहरा न था।

ख़ैर मक़दम था हमेशा आपका
कू-ए-दिल में तो कभी पहरा न था।

आपको पक्का कोई धोखा हुआ
मैं रक़ीबों का कभी मुहरा न था।

बारिशें ही बारिशें थी प्यार की
दिल तो मेरा आज तक सहरा न था।

हिज़्र का क्या लेना देना ज़ीस्त से
अब तलक दिल में कोई चहरा न था।

थी खता मेरी न दी कोई सदा
कैसे सुनता ये ख़ुदा बहरा न था।

क्या सुनाता दास्ताँ दिल की 'तुरंत'
आपसे रिश्ता ही जब गहरा न था।