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गाथा / बुद्धिनाथ मिश्र

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कभी-कभी ऐसा होता है --
लिखकर पत्र प्रिया को प्रियतम
रख लेता अपने सिरहाने
और प्रतीक्षा करने लगता
मन ही मन उसके उत्तर की ।

कभी-कभी ऐसा होता है --
देख रहा अपलक नयनों से
दूर गाँव अपने आँगन को
दीपशिखा-सी चकवी उसकी
खोल रही ढीले कंगन को।

इतने में डाकिया अचानक
दे जाता प्रिय का संदेशा
कुछ पुलकन, कुछ आशंकाएँ
थर-थर कँपा गयी विरहन को।

कभी-कभी ऐसा होता है --
प्रिय के अक्षर देख प्रिया को
पुनर्मिलन का सुख मिल जाता
भीतर ऐसी छवि छा जाती
खो जाती है सुध बाहर की ।

कभी-कभी ऐसा होता है --
नगर अपरिचित, लोग अजनबी
कमरे में एकान्त अन्धेरा
चंचल पंख शिथिल हो करते
निठुर डाल पर रैनबसेरा ।
खोया-खोया किसी ध्यान में
बादल को बाँहों में भरते
गिनते हुए सिसकती तिथियाँ
आँखों में हो गया सबेरा ।

कभी-कभी ऐसा होता है --
मीठी आग जगा देती
सोनित में प्रिय के रात रुपहली
चाँद उतरता स्वयं मुदित हो
लहरों पर प्यासे सागर की ।

कभी-कभी ऐसा होता है --
दिन पर दिन बीते, पर कोई
उत्तर नहीं गाँव से आया
आतुर हो चल पड़ा नीड़ के
पथ पर इंद्रधनुष लहराया ।
नभ में उड़ते बकपंखों को
रँगने लगी सिंदूरी संध्या
सजल कंठ से गीतों ने, सिर
गोदी में रखकर सहलाया ।

कभी-कभी ऐसा होता है --
आकुल प्राणों के मिलते ही
सारे मन धरे रह जाते
दाहकता कपूर हो जाती
प्रियतम के बावरे अधर की ।

कभी-कभी ऐसा होता है।