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गुमसुम पर्वत- घाटियाँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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170
जीवन में खुलते नहीं, बंद हुए सब द्वार।
पंछी- से कैसे उड़ें , घर जब कारागार।
171
जगती में दुर्लभ हुआ, जिसको कहते प्यार।
जिनके उर में प्यार था ,जीना तक दुश्वार।
172
गुमसुम पर्वत- घाटियाँ , निर्झर करें सवाल।
शैलशिखर भी मौन हैं , कैसे जानूँ हाल।
173
जीवन सुरभित हो सदा, बरसे सुख का नीर।
इतना दे दूँ प्यार मैं, मिट जाए हर पीर।
174
भटका मन तेरे लिए, आकुल मेरे प्राण।
भाल नयन जो चूम लूँ ,मिल जाएगा त्राण ।
175
उपवन खुशबू से भरे, शुभ पुष्पों का हास।
जीवन मधुमय भोर हो, दुःख न आएँ पास।
176
बीतेगी निश्चय सदा , व्याकुलता की रात।
नए सपन लेकर प्रिये! , कल आएगा प्रात।
177
मेरे प्राणों में बसी , तेरी इक- इक साँस।
दूर बहुत बैठे हुए, फिर भी मन के पास।
178
वंशी में है ज्यों छुपी, विकल माधुरी तान।
इस जड़ तन में त्यों बसी, तुम बनकरके प्रान।
179
प्यार बँधे न पोटली, कौन सका है तोल।
जिसके मन में आँच थी, उसे मिला बेमोल।
180
प्रिय यदि तुम होते नहीं, दिल के इतने पास।
उम्र बीतती थार में , पाकर के वनवास।
181
पुष्पों में जैसे सजा, मादक,मधुर, पराग।
तुझमें वैसे ही रमा , मेरा उर -अनुराग।