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गोर में याद-ए-क़द-ए-यार ने सोने न दिया / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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गोर में याद-ए-क़द-ए-यार ने सोने न दिया
फ़ितना-ए-हश्र को रफ़्तार ने सोने न दिया

वाह रे ताला-ए-ख़ुफ़्ता के शब-ए-ऐश में भी
वहम-ए-बे-ख़्वाबी-ए-अग़्यार ने सोने न दिया

वा रहीं सूरत-ए-आग़ोश सहर तक आँखें
शौक़-ए-हम-ख़्वाबी-ए-दिल-दार ने सोने न दिया

यास से आँख भी झपकी तो तवक़्क़ो से खुली
सुब्ह तक वादा-ए-दीदार ने सोने न दिया

ताला-ए-ख़ुफ़्ता की तारीफ़ कहाँ तक कीजे
पाँव को भी ख़लिश-ए-ख़ार ने सोने न दिया

दर्द-ए-दिल से जो कहा नींद न आई तो कहा
मुझ को कब नर्गिस-ए-बीमार ने सोने न दिया

शब-ए-हिज्राँ ने कहा क़िस्सा-ए-गेसू-ए-दराज़
‘शेफ़्ता’ को भी दिल-ए-ज़ार सोने न दिया