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घर के बाहर भेली सुन्दरी, लट छिटकावैत हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

प्रसव-वेदना आरम्भ होने पर जच्चा बेचैन हो जाती है और अपने बालों को बिखेर कर अपनी सास और ननद को जगाने लगती है तथा डगरिन बुलाने को कहती है। वेदना से विह्वल होकर वह डगरिन से इस बार के दर्द को दूर करने का अनुरोध करती हुई कसम खाकर कहती हे कि अब मैं ऐसा काम नहीं करूँगी और अपने प्रियतम के पलंग के पास भी नहीं जाऊँगी। इस समय वह पति के मिल जाने पर उसके साथ दुर्व्यवहार तक करने को सोचती है और आधे दर्द की उससे बँटवा लेने का संकल्प करती है। उसका खयाल है कि जब आनंद दोनों को समरूप से मिला है, तब दर्द में भी बराबर का हिस्सा हो।

घर के बाहर भेली सुन्दरी, लट छिटकावैत<ref>बिखेरते हुए</ref> हे।
ललना रे बैठी गेल देहरी रे झमाय<ref>फैलाते हुए</ref>, दरद सेॅ बेयाकुल भेली हे॥1॥
उठु उठु सासु सोहागिनि, ननदो अभागिनि हे।
ललना रे, उठि क दगरिन बोलाबऽ, दरद सेॅ बेयाकुल भेली हे॥2॥
अबकी दरद दगरिन हरि लहो, परमेसर किरिया खायब, भगवान किरिया खायब हे।
ललना रे, फेरू न करब ऐसन काज, पलँगिया भिर<ref>नजदीक</ref> न जायब हे॥3॥
अहि<ref>इस</ref> अवसरिया पियबा रहितै त ठुनका<ref>गाल में या ठुड्डी में धीरे से मारना</ref>, दै मूका मारितऊँ हे।
ललना रे, जुलफी रे पकरि धिसियाबितऊँ, दरदिया आधा बाँटि लेही हे॥4॥

शब्दार्थ
<references/>