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घर में भी सम्मान मिला है / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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मैं प्रसंगवश कह बैठा हूँ तुमसे अपनी राम-कहानी!

मेरे मनभावन मन्दिर में बैठी हैं खण्डित प्रतिमाएं,
विधिवत् आराधन जारी है, हँसी उड़ाती दसों दिशाएं,
मूक वेदना के चरणों में, मुखर वेदना नत-मस्तक है,
जितनी हैं असमर्थ मूर्तियाँ, उतना ही समर्थ साधक है,
एक ओर ज़िन्दगी कामना, एक ओर निष्काम कहानी!


बिखर गई ज़िन्दगी कि जैसे बिखर गई रत्नों की माला,
कोहनूर कोई ले भागा, तन का उजला मन का काला,
हारा मेरा सत्य कि जैसे, सपना भी न किसी का हारे,
साँसों-वाले तार चढ़ गये, जो वीणा के तार उतारे,
ख़ास बात ही तो बन पाती है, दुनिया की आम-कहानी!


एक ज्वार ने मेरे सागर को शबनम में ढाल दिया है,
कहने को उपकार किया है, करने को अपकार किया है,
प्रखर ज्योति ने आँज दिया है, आँखों में भरपूर अँधेरा,
मैं इस तरह हुआ जन-जन का, कोई भी रह गया न मेरा,
कामयाब है जितनी, उतनी ही ज़्यादा नाकाम कहानी!

निर्वसना प्रेरणा कुन्तलों बीच छिपाये चन्द्रानन है,
आँसू ही पहचान सकेगा, लहरें गिन पाया सावन है
मेरा यह सौभाग्य, कि मुझको हर अभाव धनवान मिला है
पीड़ा को बाहर जैसा-ही, घर में भी सम्मान मिला है
नाम कमाने की सीमा तक, हो बैठी बदनाम कहानी!