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घूमती है दर-ब-दर ले कर पटारी ज़िन्दगी / पवनेन्द्र पवन

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घूमती है दर-ब-दर ले कर पटारी ज़िन्दगी
पेट पापी के लिए बन कर मदारी ज़िन्दगी

गालियाँ कुछ को मिलीं, कुछ ने बटोरी तालियाँ
वक़्त की पिच पर क्रिकेट की एक पारी ज़िन्दगी

दो क़दम चलकर ही थक कर हाँफ़ने लगते हैं लोग
किसने इन पर लाद दी इनसे भी भारी ज़िन्दगी

वक़्त का टी.टी. न जाने कब इसे चलता करे
बिन टिकट के रेल की जैसे सवारी ज़िन्दगी

झिड़कियाँ, आदेश, हरदम गालियाँ सुनती रहे
चौथे दर्ज़े की हो गोया कर्मचारी ज़िन्दगी

मौत तो जैसे ‘पवन’ मुफ़लिस की ठण्डी काँगड़ी
बल रही दिन-रात दफ़्तर की बुख़ारी ज़िन्दगी.