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चट्टान (कविता) / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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गाओ नहीं जनाने कड़खे
धन्वा की टंकार में;
डहके धातु न तो सरगम क्या
राख बने अंगार में।

खिले न यौवन-फूल गुलाबी
मधुवन के अनुराग मे;
दमके प्राण-कनक कुन्दन बन
लावाओं की आग।

सूख गया प्राणांे का रस निज
पौरुष के निर्माण में;
बाधाओं के मस्तक पर चढ़
अकड़े जो तूफान में।

रेते नहीं समय के फरसे
खरबूजे की फांँक में;
जीवन की हल्दीघाटी में
मिटे न जो घिस खाक में।

टूटे पड़ें उन्वास पवन जो
सजकर तीर-कमान में;
पाषाणी ठोकर खा लौटें
ठुकराए अरमान में।

रौंदे टाप न संघर्षों की
डिगे न डग मग-भार में;
फटे नहीं मजबूत कलेजा
नियागरा की धार में।

उमड़-घुमड़ जो बादल आएँ
प्रलय-सिन्धु के ज्वार में;
भूलें हिरनचौकड़ी मन की
समा काल की दाढ़ में।

पिघल उठे यदि अन्तर मेरा
उद्वेलित अनजान मे;
गंगा, जमना फूट बहें तो
जग के रेगिस्तान में।

(रचना काल: अक्तूबर, 1945। ‘विशाल भारत’, दिसंबर, 1945 में प्रकाशित।)