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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / खूनी मेंहदी / पृष्ठ १

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हाँ सुनो पथिक! जो बात कह रही हूँ मैं,
कब से उसका संताप सह रही हूँ मैं।
कह देने से मन हल्का हो जाता है,
दुख का उफान फिर तल में सो जाता है।

तुम सभी जहाँ बैठे, यह वही ठिकाना,
बैठा करता था बूढ़ा एक पुराना।
सब लोग उसे पागल! पागल! कहते थे,
उसकी उत्पीड़न से आहें भरता रहता।

वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह कभी-कभी खुद पर ही झल्लाता था।
वह अपने से ही बातें करता रहता,
कुछ उत्पीड़न से आहें भरता रहता।

वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह बार-बार पत्थर पर उसे पटकता
इस तरह हाथ लोहू-लुहान हो जाता,
पागल का कुछ ठण्डा उफान हो जाता।

बढ़ गया एक दिन आत्म-दाह जब भारी,
गंगा-मैया में ही छलाँग दे मारी।
जर्ज रित देह को लहरों ने झकझोरा,
यों टूट गया साँसों का कच्चा डोरा।

चल निकलीं, जितने मुँह उतनी ही बातें,
जन-पथ पर चलती बातों की बारातें।
चर्चाओं के मंथन से अभिमत निकला,
वह पाप धो रहा था अपना कुछ पिछला।

यह पागल था पहले जल्लाद भयानक,
उसका सारा जीवन ही क्रूर कथानक।
जाने कितनों के जीवन-दीप बुझाए,
उसने जाने कितने माँ-दीप स्र्लाए।

उसके अन्तर में नहीं दया-ममता थी,
दानवी वृत्ति की अपरिसीम क्षमता थी।
जल्लाद दैत्याकार महाबल-शाली,
उसकी आँखों में चिता-ज्वाला की लाली।

उसकी गति में हत्याओं की हलचल थी,
मति में जघन्य पापों की चहल-पहल थी।
वह क्रुद्ध बाज-सा जिसके ऊपर टूटा,
तन के पिंजडे से प्राण-पखेरू छूटा।

वह दैत्य एक दिन जब अपनी पर आया,
निर्बोध एक बालक पर हाथ उठाया।
इस बाल-सिंह का नाम चन्द्रशेखर था,
जलती भट्टी का ताप लिए अन्तर था।

वह भी जन -आंदोलन में कूद पड़ा था,
शासन ने उसको इसीलिए जकड़ा था।
देखे केवल चौदह वसन्त जीवन के,
संकल्प उग्र हो गए उदित यौवन के।

वह तड़प, `बाँधो न मुझे हत्यारो'!
पन्द्रह क्या, पन्द्रह सौ कोड़े तुम मारो।
मैं जहाँ खड़ा हूँ, तिलभर नहीं हिलूँगा,
मैं हर कोडे पर हँसता हुआ मिलूँगा।

जो दण्ड मिले वरदान, समझ ले लूँगा,
आघात भयंकर फूल समझ झेलूँगा।
जो मार पडेग़ी उसका स्वाद चखूँगा,
जो दूध पिया है उसकी लाज रखूँगा।

यह कह वह बालक खड़ा हो गया तनकर,
जल्लाद झपट बैठा सक्रोश उफन कर।
पूरी ताकत से एक हाथ दे मारा,
बालक बोला गाँधी की जय का नारा।

फिर और जोर से उसने हाथ जमाया,
भारत-माता की जय का नारा आया।
क्रोधांध दैत्य ने हाथ तीसरा छोड़ा,
कुछ खाल खींच कर ले आया वह कोड़ा।

चौथा कोड़ा हो गया खून से तर था,
विचलित किंचत भी नहीं चन्द्रशेखर था।
निर्वसन देह पर पडे तडातड़ कोड़े,
भरपूर हाथ उस नर-दानव ने छोडे।

कोमल काया कोड़ो से जूझ रही थी,
उसको जन-नायक की जय सूझ रही थी।
जल्लाद, हाथ कस-कस कर गया जमाता,
हर हाथ, खाल उसकी उधेड़ ले आता।

बालक ने चाहा नहीं वार से बचना,
खूनी मेंहदी की हुई देह पर रचना।
उसने अपना कोई व्रण नहीं टटोला,
वह गाँधी की-भारत माँ की जय बोला।

उस नरम उमर ने मार भंयकर खाई,
अधखिले फूल ने वज्र-शक्ति दिखालाई।
कुसुमादपि उसकी देह बनी फौलादी,
वह झेल गया आघात क्रुर जल्लादी।

लोगों के दिल पर अब उसका आसन था,
यह देख-देख ईर्ष्यालु हुआ शासन था।
हर अन्तर ही अब उसका अपना घर था,
अनुदिन उसका चिन्तन हो रहा प्रखर था।

जन-भावों पर छा गया चन्द्रशेखर था,
नक्षत्र नया आगया चन्द्रशेखर था।
कायरता का खा गया चन्द्रशेखर था
आजाद नाम पा गया चन्द्रशेखर था।

वह धरती का अनुराग लिए फिरता था,
तन पर कोड़ों के दाग लिए फिरता था।
वह स्वर में विप्लव-राग लिए फिरता था,
वह उर में जलती आग लिए फिरता था।

सहला न सका उसके घावों को गाँधी,
आ गई क्रांतिकारी भावों की आँधी।
लपटों का सरगम छिड़ा उग्र जीवन में,
वह धूमकेतु-सा निकला क्रांति-गगन में।