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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / पथिक प्रतिबोध / पृष्ठ १

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मैं आजादी के परवानों का दीवाना,
मैं आजादी की डगर-डगर में घूमा हूँ।
आजाद चन्द्रशेखर की है जो याद लिए,
उस ग्राम-ग्राम में, नगर-नगर में घूमा हूँ।

कंकड़-पत्थर, गलियों-चौराहों को मैंने,
उस महाबली की याद सँजोते देखा है।
जिनसे उसके जीवन की गाथा जुड़ी हुई,
उन वृक्षों को भी मैंने रोते देखा है।

वह कुटिया, जिसमें उसने प्रथम साँस ली थी,
कहती, मुझको बेटे की आहट आती है।
वे चट्टानें, जिन पर वह खेला-कूदा था,
उन चट्टानों की भी छाती फट जाती है।

मेरे पैरों से लिपट धूल ने पूछा था
जो मुझमें खेला, वह मेरा फौलाद कहाँ?
हर मेंढ़, डगर, पगडण्डी ने भी प्रश्न किया,
आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? आजाद कहाँ?

आजाद कहाँ, मैं इसका क्या उत्तर देता,
में उनको रोते और बिलखते छोड़ चला।
मैं घबराया, मेरा ही हृदय न फट जाए,
उस ग्राम-धरा से मैं अपना मुख मोड़ चला।

ओोरछा तीर्थ बन गया देश-भक्तों का जो,
जा पहुँचा मैं भी वहाँ सांत्वना पाने को।
क्या पता कि लेने के देने पड़ जायेंगे,
मैं धैर्य कहाँ से लाऊँ, हाल सुनाने को।

मेरे कन्धों से लग सातार बहुत रोई,
आजाद कहाँ भैया? क्या सन्देशा लाए?
सुध-बुध तो खोता नहीं भावरा याद किए,
बतलाओ, तुम तो अभी वहीं से ही आए।

``आजाद कहाँ? आजाद कहाँ? रटते-रटते,
मैंने देखा सातार सूखती जाती थी।
पानी होकर, वह दिल पत्थर कैसे करती,
इसलिए पत्थरों से वह सर टकराती थी।

उस कुटिया में जिसमें योगी आजाद रहा,
उस नर नाहर की वीर-प्रसू माँ आई थी।
उसका क्रन्दन सुन पत्थर पिघल हुए पानी,
फट गए हृदय, उसने पछाड़ जब खाई थी।

दीवारों से सर फोड़-फोड़ उसने पूछा-
``क्यों खड़ी मौन? बतलाओ मेरा लाल कहाँ?
साम्राज्यवाद की पर्वत जैसी छाती भी,
धक-धक करने लगती थी, वह भूचाल कहाँ?

ओ सरिता की वाचाल लहरियों! बोलो तो,
मेरी आशाओं का मृग-छौना कहाँ गया?
माँ होकर भी मैं स्वयं खेलती थी जिससे,
मेरा चन्दा, वह बाल-खिलौना कहाँ गया?

अर्जुन वृक्षों! तुम रहे खड़े के खडे यहाँ,
मेरी आँखों की ज्योति यहाँ से चली गई।
मेरी गुदड़ी में एक लाल ही शेष बचा,
कैसी अभागिनी, मैं उससे भी छली गई।

मेरी छाती से लग कर जिसने दूध पिया,
उस छाती से बोलो अब किसे लगाऊँ मैं?
किसका माथा चूमूँ राजा-बेटा कहकर?
अब कृष्ण-कन्हैया कहकर किसे जगाऊँ मैं?

जिस तरह किया माँ ने विलाप, उसकी गाथा,
हर पत्ती ने रो-रोकर मुझे बताई थी।
मैं खड़ा रह सका नहीं, वहाँ से खिसक गया,
मुझको प्रयाग में ही अपना सुधि आई थी।

वह उपवन भी मैंने जाकर देखा, जिसमें,
आ गई मौत को भी उसने ललकारा था।
जो वीर प्रसूता माँ का दूध पिया उसने,
वह दूध, खून का बन बैठा फव्वारा था।

उस उपवन का हर वृक्ष तड़पता दिखा मुझे,
यह साख-साख ने फूट-फूट कर बतलाया।
आजाद नाम, जो बना वीरता का प्रतीक,
वह सुभट-सूरमा लड़कर यहीं काम आया।

आ-आकर मुझमे कई हवाएँ कह जातीं,
उस बलिदानी को लोग भूलते जाते हैं।
जिन आँखों ने उसका लोहू बहते देखा,
उन आँखों में पद-लोभ फूलते जाते हैं।

कह देना उनसे एक बात यह समझा कर,
जो याद शहीदों की इस तरह भुलाते हैं,
दुश्मन उनकी आजादी को तकते रहते,
जब दाँव लगा, तो वे उसको खा जाते हैं।

कह देना, आजादी जीवित रखनी है तो,
उन सब को पूजें, जिनने खून बहाया है।
यह बिना खून की बूँद बहाए नहीं मिली,
लोहू का भागीरथ यह गंगा लाया है।

यह नहीं, याद भर ही उनकी हो अलम् हमें,
अवसर आए प्राणों के पुष्प चढ़ाएँ हम।
अब आजादी की बलिवेदी माँगे हविष्य,
अपने हाथों से अपने शीष चढाएँ हम।

कर्त्तव्य कह रहा चीख-चीख कर यह हमसे,
हर एक साँस को एक सबक यह याद रहे
अपनी हस्ती क्या, रहें-रहें या नहीं रहें,
यह देश रहे आबाद, देश आजाद रहे।