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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / बावली माँ / पृष्ठ १

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वर्ण केवल एक, जिस पर वर्णमाला ही निछावर,
शब्द केवल एक जिसमें अर्थ का सागर भरा है।
ऊष्मित ममता, अधिक व्यापक गगन की नीलिमा से
दिव्य वह अस्तित्व माँ सहन-शीला धरा है।

योग की तय-साधना से कम न पावन त्याग माँ का,
ज्वार सागर का, न पागल मातृ-उर के ज्वार-सा है।
और भावो के कई उपमान मिल सकते हमें हैं,
किन्तु कोई प्यार दुनिया का न, माँ के प्यार-सा है।

छू न सकतीं मातृ-मन को विश्व की ऊँचाईयाँ सब,
मातृ-उर से अधिक कोई किन्तु सिन्धु भी गहरा नहीं है।
पुत्र के तन पर न रोया एक ऐसा सकेगा,
मातृ-ममता का सजग जिस पर कड़ा पहरा नहीं है।

विश्व की प्रत्येक माँ, विधि की अनोखी एक रचना,
भावना प्रत्येक माँ की, एक साँचे में ढली है।
राग की, अनुराग की, तप-त्याग की प्रतिमूर्ति माँ है,
मानबी, देवी, मगर संतान हित माँ बावली है।

बावली माँ एक रहती थी यहाँ भी पथिक पाहुन,
छाँह पलकों की किए निज पूत को वह पालती थी।
चन्द्रशेखर चन्द्र-माँ के भाग्य-नभ का चन्द्रमा था,
ढाल बनकर लाल की वह सब बलायें टालती थी।

एक रोयाँ भी कभी दुखता दिखे यदि लाड़ले का,
अंक में सुत, रात आँखों में लिये वह जागती थी।
पल्लुओं से देव-द्वारे झाड़ती, माथा रगड़ती,
वह मनाती थी मनौती, विकल घर-घर भागती थी।

एक क्यों, आते कई दिन, जब आहार होता,
लाल को ममतमायी, भूखा कभी सोने न देती
काट लेती दिन, अभावों की चुनरिया ओढ़कर वह,
किन्तु आँखों के सितारे को दुखी होने न देती।

पर वही माँ दिन थी खिन्न, जब भोजन परोसा,
बैठ मेरे लाड़ले! खाले तनिक, वह कह न पाई।
चन्द्रशेखर सकपकाया देखता माँ का मलिन मुख,
लांघ संयम के किनारे, बढ़ चली माँ की स्र्लाई।

हिचकियों की दीर्घ कारा से हुई जब मुक्त वाणी,
सिसकियों ने फुसफुसाया, चाँद तू मेरा सलौना।
आज मोहन सेप कहूँ कैसे कि मोहन-भोग खाले,
जब कि रूखा और सूखा, है बना भोजन अलोना।

ला रही थी मैं पड़ौसिन से नमक, पर ला न पाई,
लाल! तेरे पूज्य बापू ने उसे वापिस कराया।
तड़प कर बोले, भले भूखे रहें चिन्ता नहीं कुछ,
माँग कर खाकर जियें हम, इसलिए जीवन न पाया।

माँ! दुखी मत हो कि तेरा स्नेह षडरस से अधिक है,
मधुर व्यंजन समझ यह भोजन अलोना खा सकूँगा।
मैं पिता के स्वाभिमानी शीष को झुकने न दूँगा,
आन अपने वंश की मैं शान से अपना सकूँगा।

आज तेरे स्नेह कै सौगन्ध खाकर कह रहा माँ!
गर्म मेरा खून, तेरे दूध का सम्मान होगा।
मैं अभावों से लडूँग़ा, और लड़कर जी सकूँगा,
साथ स्नेहाशीष तेरा, काल भी वरदान होगा।

और उस दिन तीन दिन फिर और था भोजन अलोना
लड़कियाँ माँ ने बटोरी, बेच उनको नमक आया।
पर किसी को खेद किंचित भी नहीं इस हाल पर था,
बन गया था घर किला, यह भेद बाहर जान पाया।

किन्तु निर्धनता अकेली, थी नहीं माँ की परीक्षा,
भाग्य पर उसके भयानक एक पर्वत और टूटा।
जो हृदय का हार प्रिय, आधारजीवन का सदृढ़ था,
हाय रे दुर्भाग्य! उस आधार का भी साथ छूटा।

भाग्य-नभ का चन्द्र, उसकी दृष्टि से ओझल हुआ था,
कर दिया गृह-त्याग सुत ने, माँ वियोगिन हो गई थी।
छटपटाती-तड़पती वह मीन हो जल-हीन जैसे,
खो गई थी प्राण-निधि, चिर वेदना नह बो गई थी।

बस गया जा निर्धना का नयन-धन वाराणसी में,
चन्द्रशेखर गंग-तट पर ज्ञान-घट भरने गया था।
क्या पता माँ को कि गंगाजल अनल-प्रेरक, बनेगा,
जानती कैसे कि उसका लाल क्या करने गया था।

एक ही विश्वास में अटकी हुई थीं भावनाएँ,
लौट आएगा किसी दिन, गोद का श्रृंगार उसका।
अर्चना, आशीष अहरह साधना-आराधना में,
खप रहीं थीं वृद्ध साँसे, तप रहा था प्यार उसका।

जेठ की तपती दुपहरी में बबंडर घूमता जब,
लाल की अनुहार लख, वह भेंटने उसको लपकती।
किन्तु सूखे पात-सा कृश-गात क्या आघात सहता,
वात-चुक्रित देह धरती पर पके फल-सी टपकती।

झूमते गजराज-से, जब सघन पावस-दूत घिरते,
सिंह-सुत की विविध आकृतियाँ उसे दिखतीं घनों में।
गर्जना का भान होता, क्रद्ध जब विद्युत तड़कती,
तैरती सुधियाँ सुअन की इन्द्र-धनुषी चितवनों में।

जब शरद का चन्द्र उगता, देखती थी एकटक वह,
चाहती, वह गोद में उसके उछल कर बैठ जाए।
आज किस वन पर हुआ धावा, उजाड़ा कौन उपवन,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जा खिलाना।

चिन्दियाँ कुछ औढ़नी से फाड़ चन्दा को दिखाती
जीर्ण ले-ले,तू नये कुछ वस्त्र चन्टू को सिलाना,
याद तो होगा, तुझे उसने सगा मामा बनाया,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जो खिलाना।

स्वर्ण-किरणों का बिछाता जाल जब हेमन्त का रवि,
सुधि उमड़ती, दशहरे, पर लाल सोना लूटता था।
हौसला किसका, लगा कर होड़ उससे तेज दौडे,
छोड़कर पीछे सभी को, तीर-सा वह छूटता था।

जब गली में शोर होता, झगड़त बालक परस्पर,
जब किसी के चीखने कल स्वर उसे पड़ता सुनाई।
भास होता, आज चन्दर ने किसी को धर दबोचा,
वह छड़ी लेकर लपकती, कोसती, उसकी ढिठाई।

जब शिशिर के गीत में वह देखती बालक ठिठुरते,
याद करती, चन्द्र कैसा निर्वसन हो घूमता था।
ढेर सूखी पत्तियों का जब सखा उसके जलाते,
फाँदता लपटें, कभी उनके शिखर वह घूमता था।

आग-सी वन में लगा उन्मत जब टेसू दहकते,
सुधि सताती, ढेर सारी डालियाँ वह तोड़ लाता।
रंग केसरिया बनाता, फूल टेसू के गला कर,
खूब होली खेलता, जो भी निकलता वह भिगाता।

लाड़ले की विविध लीलाएँ उसे जब याद आतीं,
कौंध जाती वेदना, कस कलेजा थाम लेती।
ज्योति आँखों की भटकती थी अँधेरे के वनों में,
छोड़ती निश्वास, अपने लाल का वह नाम लेती।

याचना करती, कुशल उसकी मना, अशरण-शरण प्रभु
लौट आए लाल मेरा, युक्ति वह उसको सिखाना।
मैं अकेली ही बहुत हूँ झेलने दास्र्ण व्यथाएँ
तू किसी माँ को कभी दुर्दिन नहीं ऐसे दिखाना।