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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / योग माया / पृष्ठ १

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अनुदिन प्रसरित योगी की ख्याति-परिधि थी,
बढ़ रही ब्याज जैसी ही यश की निधि थी।
सौरभ को क्या कोई बन्दी कर पाया?
क्या नहीं क्षितिज से सूरज बाहर आया?

विश्वास जहाँ जमता, श्रद्धा बढ़ती है,
वह तेज नशे जैसी मन पर चढ़ती है।
यश की निधि लूटे कभी नहीं लुटती है,
जितनी लूटो, वह दूनी आ जुटती है।

जब कीर्ति-कौमुदी फैल गई घर-घर में,
कुटिया का योगी था सबके अन्तर में।
लग गए भक्त-जन अब दर्शन को आने,
अर्पित करते थे लोग फूल, फल पाने।

थी एक साँझ, वह बेला गोधूली थी,
वन-प्रांतर में संध्या फूली-फूली थी।
वरदान प्रकृति ने शोभा का पाया था,
मन का हुलास, जैसे बाहर आया था।

योगी यह मोहक दृश्य निहार रहा था,
वह मन में उसका चित्र उतार रहा था।
उसकी तन्मयता में कुछ बाधा आई,
दी उसे मृदुल कोमल पदचाप सुनाई।

कुछ क्षण में ही उसके सम्मुख आकृति थी,
जैसे कि देह धर आई स्वयं प्रकृति थी।
तन की द्युति, जैसे फेनिल चन्द्र-छटा हो,
अलकावलि, जैसे श्यामल सजग घटा हो।

आँखें, जैसे दो झीलें भरी-भरी हों,
पुतलियाँ, कि जल में तिरती हुई तरी हों।
पलकें जैसे सीपियाँ मोतियों वाली,
करतीं बरौनियाँ निज धन की रखवाली।

भृकुटी, जैसे दो इन्द्र-धनुष उग आए,
चितवन, जैसे मन्थन ने तीर चलाए।
उर, जैसे लहराता तूफानी सागर,
करता हो जैसे अपना ओज उजागर।

वह यौवन, जैसे लेता हो अँगड़ाई,
साँसों में जैसे केशर-गंध समाई।
गति, जैसे गर्वीली नागिन लहराए,
जिस ओर चले, भारी उत्पात मचाए।

उत्पात उपस्थित योगी के सम्मुख था,
जैसे कि समन्वित हो आया सुख-दुख था।
दोनों अवाक्, दोनों हतप्रभ सम्मोहित,
जैसे प्रभाव हो पारस्परिक प्ररोहित।

युग जैसे भारी लगे उन्हें कुछ क्षण थे,
दोनों अंतर ही बोझिल भाव-प्रवण थे।
प्रकृतिस्थ भावनाएँ अब मौन मुखर था,
अब हुआ निनादित वीणा से मृदु स्वर था।

``कल्याण-कामना हेतु दवि! प्रस्तुत हूँ,
केवल साधक, मैं सिद्ध नहीं विश्रुत हूँ।
अभ्यास योग का है मेरा साधारण,
क्या पूछूँ मैं इस अमित कृपा का कारण?

``मेरी पीड़ा का पूछ रहे हो कारण,
कारण भी तुम ही, उसके तुम्हीं निवारण।
सब जान-बूझ अनजान बन रहे योगी,
क्यों नहीं मुझे वरदान बन रहे योगी?

यह योग सधना किसके हित अपनाई?
चढ़ते यौवन में यह विरक्ति क्यों आई?
क्या साध किसी की रह जाएगी प्यासी?
यह रम्य रूप, मन में क्यों घनी उदासी?

``वरदान बनूँगा कैसे मैं कल्याणी,
गृह-हीन पथिक, बिल्कुल नगण्य-सा प्राणी।
यह प्यास, प्यास है नहीं, मात्र विकृति है,
है तृप्ति एक इसकी, वह भाव-सुकृति है।

मैं स्वयं रूप का भक्त, रूप वह मन का,
सौन्दर्य नहीं होता है केवल तन का।
तुम जिसे रूप कहती हो, वह तो छल है,
वह रूप, आत्मा का ही केवल बल है।

मैं मन देती योगी! तुम मुझको बल दो,
हम बनें मनोबल, जीवन को संबल दो।
दो तन होकर, हम एक रूप हो जाएँ,
जिस लिए मिला जीवन, उसका फल पाएँ।

``तुम पुरुष, औरर मैं प्रकृति-स्वरूपा नारी,
हम दोनों ही सह-जीवन के अधिकारी।
मनु के आगे श्रद्धा हो रही समर्पित,
हम करें आज नव-जीवन, नव-रस अर्जित।

तुम शक्ति स्वरूपा, फिर क्यों सह दुर्बलता,
क्या शोभित नारी को इतनी चंचलता?
कुल-शील आदि कुछ ज्ञात नहीं है मेरा,
क्यों व्यक्त अपरिचित के प्रति स्नेह घनेरा?

``है प्रणय नहीं दुर्बलता, शाश्वत बल है,
यह मानव जीवन का पावन शतदल है।
अनुबंध प्रणय का कोई पाप नहीं हैं,
वरदान प्रणय है, वह अभिशाप नहीं है।

कुल-शील नहीं निर्णायक कभी प्रणय के,
कुल-शील नहीं बन्धन हैं कभी हृदय के।
पल एक बहुत है, दो अन्तर मिल जाने,
रवि-रश्मि एक है बहुत कमल खिल जाने।

तुम मेरे हो, जब से तुमको देखा है,
व्यवधान नहीं अब विधि-निषेध रेखा है।
पल भर में ही तुमको पहचान लिया है,
मैंने तुमको बस अपना मान लिया है।

``अनुबन्ध देवि! दो हृदयों में होता है,
उर एक, प्रणय का भार नहीं ढोता है।
दो हाथों से बजती सदैव है ताली,
मेरा अन्तर इस प्रणय-भाव से खाली।

मैं हूँ निवेदिता, हृदय दे रही तुमको,
मीठे सपनों का निलय दे रही तुमको।
योगी, यह सब स्वीकार किया जाता है,
इन भावों का सत्कार किया जाता है।

जो ठुकराता है प्यार, बहुत पछताता,
लगता है उसको शाप, बहुत दुख पाता।
अष्शिप्त बनो मत, जीवन का सुख पाओ,
वरदान स्वयं घर आया है, अपनाओ।

``हूँ विवश देवि! मैं तिल भर नहीं हिलूँगा,
इस जीवन में तो तुमको नहीं मिलूँगा।
मेरे जीवन में नारी केवल माँ है,
वह ज्योतित पूनम है, वह नहीं अमा है।

तपते जीवन को, माँ शीतल छाया हैं,
माँ से महानता ने भी बल पाया है।
आना है तो अगले जीवन में आना,
माँ बन कर मुझको अपने गले लगाना।

``योगी! सचमुच तुम जीत गए मैं हारी,
तुम पुरुष नहीं हो हो कोई अवतारी।
अनुभूति आज की अमर प्रेरणा होगी,
हों माया के अपराध क्षमा, हे योगी।

तुम हो जिसने नारी को विवश किया है,
जीवन बिल्कुल ही मुझको नया दिया है।
जो व्रत-साधा तुमने, पूरा वह व्रत हो,
उस दिव्य-साधना से जन-जन उपकृत हो।