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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / वर की खोज / पृष्ठ १

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आजाद, गोद में मेरी ऐसे आ बैठा,
सचमुच ही जैसे मैंने उसको गोद लिया।
उसके प्रति इतना स्वाभाविक आकर्षण था,
जैसे हठमठ ही उसने मेरा दूध पिया।

अंग्रेजी शासन के मुँह पर थप्पड़ जड़कर,
मेरी गोदी में आ बैठा निर्भीक-मना।
जैसे घर में ऊँचाई पर हो चित्र टँगा,
पंछी उसके पीछे ले अपना नीड़ बना।

या जैसे कोई सिंह देख अपना शिकार,
कुछ दुबक, संकुचित हो धरती से सट जाए।
फिर अपनी पूरी शक्ति लगा भरकर उछाल,
कसमसा तीर-सा छूटे, उसे झपट खाए।

वैसे ही वह आजाद वीर वज्रांग बली,
दम साधे था अपने दुश्मन पर फट पड़ने।
कह रहा शक्ति का संचय था सक्रियता से,
साम्राज्यवाद के दुर्दम दानव से लड़ने।

अज्ञातवास ही केवल उसका लक्ष्य न था,
वह सूत्र क्रांति के धीरे-धीरे जोड़ रहा।
यौवन, जो होता चकाचौंध पर न्योछावर,
संघर्षों के पथ पर वह उसको मोड़ रहा।

उर्वरा भूमि में यत्न-लता लहलहा उठी,
कलियों ने आँखें खोली, श्रम ने फल पाए।
आजाद अकेला नहीं शत्रु के सम्मुख था,
विश्वस्त मित्र थे अब उसके दाँए-बाँए।

यौवन की आँधीं उठी वेग से हहराती,
लड़खड़ा उठी अत्याचारों की सजल घटा।
आराध्य देश, व्यक्तित्व श्लेष था उन सबका,
संकल्प-साधना अनुप्रास की दिव्य छटा।

जब सुखद नींव की घनी छाँह में, लोगों के,
यौवन के मीठे मादक सपने पलते थे।
कर्तव्य-सजग उनके अंतर भट्टी बनते,
संकल्प मुक्ति के, गोले जैसे ढलते थे।

संकल्प अकेले ढलते, ऐसी बात न थी,
निर्मित होते सचमुच विध्वंसक बम गोले।
था बारूदी उत्साह भड़क उठने आतुर,
सब तुले हुऐ थे, जो होना है सो होले।

हम भूख-प्यास जिस आवश्यकता को कहते,
उस दुर्बलता के आगे थे वे झुके नहीं।
उठ गए पाँव, तूफान ताकता रहा उन्हें,
वे आग और पानी से बाधित रुके नहीं।

क्या वास्तु विवशता है, उनने जाना न कभी,
भय क्या है उससे परिचय भी तो हुआ नहीं।
घर की सीमाओं ने उनको बाँधा न कभी,
अपनों की ममता ने उनका मन छुआ नहीं।

आजाद, देश की आजादी था खोज रहा,
संघर्ष-शील मन के संकल्पों के वन में।
हर साँस दासता से भारी-भारी लगती,
कस रही खाल थी उसकी, माँ के बंधन में।

भुजदंड फड़कते थे अरि का मर्दन करने,
वह दाँत पीसता था उसको खा जाने को।
उसका यौवन था प्रलय मेघ-सा घुमड़ रहा,
धरती के दुश्मन पर विनाश बरसाने को।

था सूँघ रहा शासन भी उसकी गतिविधियाँ,
वह डाल रहा था जाल, उसे उलझाने को।
बढ़ रहीं समस्याएँ थीं उसकी दिन-दूनी,
आजाद चाहिए था उनको सुलझाने को।

हथकड़ियाँ थीं बेचैन वरण करने उसका,
वे आस लगाए उसकी बैठी थीं क्वाँरी।
ससुराल बने, यह कारागृह की साध रही।
कर रहे सभी थे धूमधाम से तैयारी।

बढ़ रहे भाव, आजाद अकड़ता जाता था,
था माँग रहा यह भी दहेज में आजादी।
शासन ससुरा, यह देने को तैयार न था,
इस उलझन में थी अटक रही अब तक शादी।

जब देखा, उसको सभी दबाने तुले हुए,
सब उसे फाँसने डाल रहे घेरा भारी।
तो वह भी सबको धता बताकर निकल गया,
रम गया कहीं वह, बनकर बालब्रह्मचारी।