भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / विकट हौसला / पृष्ठ १

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ले रहे आप रुचि हैं मेरी इन बातों में
इसलिए कर रहा दिल, कुछ और सुनाऊँ मैं।
आजाद किस तरह लुकाछिपी खेला करता,
कुछ और करिश्में देखे हुए, दिखाऊँ मैं।

आ सकी न कोई उसके दिल में दुर्बलता,
आती कैसे, वह शक्ल देख घबराती थी।
धीरता डालती थी उस पर अपने डोरे,
वीरता निछावर उस पर हो-हो जाती थी।

शासन की आँखों में वह धूल झोंकता था,
पानी में रहकर बैर मगर से करता था।
जब कमजोरी उसके दिल में थी आ न सकी,
डर भी उसके दिल में आने से डरता था।

स्वछन्द पवन जैसी-उसकी इच्छाएँ थीं,
अरमान अग्नि-मुख-पर्वत जैसे बलशाली।
उसकी गतिविधियाँ होनहार की गति जैसी,
आजाद शत्रु के लिए बना करता बाली।

उस दिन उसके मन में यह इच्छा तड़प उठी,
अशफाक जेल में है, उससे मिल आऊँ मैं।
दो बातें करना सचमुच अगर पाप है तो,
दर्शन करके ही जी की जलन मिटाऊँ मैं।

इच्छा का अंकुर उगा, पात फूटे-फैले,
जीवन लहराया, फूलों ने थे फल पाए।
जेलर साहब ने सुना, वहाँ उनसे मिलने,
कोई अच्छे-खासे तगड़े लाला आए।

बंदगी हुजूरे आली! मैं साहू चन्दर,
हाजिर हूँ अपने वतन बड़ौदा, से आकर।
सोचा, हुजूर की खिदमत में कुछ अर्ज करूँ,
मैं देखूँ अपना भाग्य यहाँ भी अजमा कर।

मैं मूँगफली का बहुत बड़ा व्यापरी था,
पिट गया सभी व्यापार, दिवाला निकल गया।
सोचा, दुर्दिन में घर से दूर रहूँ, चलकर,
रोजी-रोटी के लिए करूँ कुछ काम नया।

सुनते हैं, रसद कैदियों को जो दी जाती,
यह काम दिया जाता है ठेकेदारों को।
इस साल इनायत हो मुझ पर गरीब परवर।
मिल जाये रोटी हम जैसे बेचारों को।

जो सिफ्त काम में मेरे, वह भी बतला दूँ,
वह रसद, जे के कैदी यद्यपि खाएँगे।
पर असर पडेग़ा रसद बाँटने वालों पर,
वे मुझ जैसे मोटे-तगडे हो जाएँगे।

``लालाजी! यह दिल्लगी नहीं, गर सच है तो,
हम कोशिश करके काम तुम्हें दिलवाएँगे।
पर खौफ हमें, यदि अनशन कर बैठ कैदी,
तो क्या उन जैसे पिचक नहीं हम जाएँगे।

लाला बोले, ``मैं शक्ल देख कर कह सकता,
खाएगा गुपचुप कौन, कौन चिल्लाएगा।
जब अनशन करने की नौबत आएगी, तो,
उसका इलाज भी उस जैसा हो जाएगा।``

जेलर साहब ने साथ लिया लालाजी को,
ले चले दिखाने कैदी और कैदखाना।
वे सोच रहे थे यह बकरा फँस जाए, तो
पक जाएगा अपना भी अच्छा नजराना।

क्या पता, जिसे वे बकरा समझ रहे थे, वह
नाखून छिपाए, बबर शेर का चाचा था।
शासन के मुँह का घाव अभी भी भरा न था,
जब काकोरी में उसने जड़ा तमाचा था।

आतुर जिसके हित बन्दी-गृह की दीवारें,
शासन की सुरसा भूखी जिसे लील जाने।
वह खड़ा उन्हीं के बीच प्राण-जैसा तन में,
उन्नत ग्रीवा, नि:शंक, निडर, सीना ताने।

अशफाक देखकर उसको, क्षणभर को चौंका,
पण्डितजी कैसे यहाँ, कलेजा काँप गया।
पर समझ गये, हौसला इन्हें ले आया है,
क्या उनके दिल में है, वह यह भी भाँप गया।

जो कुछ आँखों ने कहा, सुना वह आँखों ने,
मुख और कान, दोनों अवयव बेकार हुए।
रीझे-खीझे, उलझे-सुलझे, भर-भर आए,
दिल एक-दूसरे पर इस तरह निसार हुए।

पिंजड़ा मलता रह गया हाथ, उसका शिकार
वह चला गया बाहर, उसके भीतर आकर।
जेलर समझा, उँगली से पहुँचा पकडेंग़े,
पर लाला खिसका, साफ अँगूठा दिखलाकर।