भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चरण गहे थे, मौन रहे थे, / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चरण गहे थे, मौन रहे थे,
विनय-वचन बहु-रचन कहे थे।

भक्ति-आंसुओं पद पखार कर,
नयन-ज्योति आरति उतार कर,
तन-मन-धन सर्वस्व वार कर,
अमर-विचाराधार बहे थे।

आस लगी है जी की जैसी,
खण्डित हुई तपस्या वैसी,
विरति सुरति में आई कैसी,
कौन मान-उपमान लहे थे।

ठोकर गली-गली की खाई,
जगती से न कभी बन आई,
रहे तुम्हारी एक सगाई,
इसी लिए कुल ताप सहे थे।