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चल खला में कहीं रहा जाए / ध्रुव गुप्त

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चल खला में कहीं रहा जाए
चुप कहा जाए, चुप सुना जाए

तू कभी रूह तक भिगा हमको
तू कभी जिस्म में समा जाए

घर से निकले तो दश्त में आए
अब यहां से किधर चला जाए

हादसे हमपे सौ दफ़ा गुज़रे
दिल न टूटा तो क्या किया जाए

अक्स सबका छिपाए बैठा है
ख़ुद को देखे तो आईना जाए

अपने जीते जी फ़ैसला न हुआ
ज़िन्दगी किस तरह जिया जाए

सिर्फ़ तुमसे हमें जो कहना था
सिर्फ़ तुमसे नहीं कहा जाए

न बनाओ तो तोड़ दो आकर
कुछ करो अब नहीं सहा जाए

न देवता, न फरिश्तों जैसा
आज ख़ुद सा चलो हुआ जाए