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चल पेपे अब घर चलें / प्रकाश मनु

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(शीर्षक पंक्ति के लिए प्रभा खेतना के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए)

बाहर बड़ा शोर है, बड़ा सन्नाटा-बड़ी भगदड़
जरूर कुछ गड़बड़ है
चल पेपे, अब घर चलें।

दिशाएं धुआं उगल रही हैं
धरती राख
सूरज जरूरत से ज्यादा लाल और गरम और
बत्तमीज है
अब तरफ डरे हुए परिंदों की आवाजें है अशोभन
जो कानों में सूइयों की तरह धंसती है....
कहीं से कोई ईट उखड़कर पैरों के पास
आ गिरी है

चल पेपे अब घर चलें।

दिन है....मगर आवाज देने पर भी
कहीं कोई घर से नहीं झांकता
नहीं पूछता कोई हालचाल
नहीं पूछता चोट कहां लगी कैसे लगी
कोन बिथा है, अरे ओ मनुज तेरे भीतर... ।

कोई नहीं पूछता
कौन था जो मारकर भाग गया दिन-दहाड़े
कौन है जो गठरी बना पड़ा है सड़क पर
और अभी-अभी धीरे से कराहा है
शायद अपने जिंदा होने का सबूत देने की खातिर...
मगर किसी के दैनंदिन गणित में नहीं शामिल यह दृश्य

यह टीस...
तो फिर किसके लिए हम जिएं क्यों जिएं
किस-किस के लिए हों रात-रात पर परीशां...।

देख तेरे नीचे ये टूटा हुआ कांच तो नहीं ?
या शायद भटकटैया या नागफनी के जहर बुझे कांटे...
क्या लोग हंस रहे हैं इसीलिए ?
मगर किस-किस की परवाह करें ?
इर्द-गिर्द हंसते लकड़ी के रावणों अहिरावणों से बचकर
चल पेपे, अब घर चलें।

यह वक्त है या तमाशा कुछ समझ नहीं आता।
चल पेपे, तू ही समझा।
कि सदी के आखिरी दशक के आखिरी बरसों को
किसी शैतान चूहे की तरह कुतरता
यह कौन सा अललटप्प वक्त या तमाशा है
जब तमाम मूर्तियां रातो रात दरक गई हैं
नेता अटैचियों में कराड़ों-करोड़ भरकर विदेश भागने की फिराक में हैं

संपादक ने मंत्री से हाथ मिला लेने के बाद
कलम उठा ली है तलवार की तरह
तेरे-मेरे पेट में सीधे भोंक डालने के लिए
ताकि सिर्फ हैसियत वाले जिएं और डकारकर इस पृथ्वी को
बुरी तरह डकारते हुए जिएं।
(नीले शब्दों की थूथन उठाए मिडियाकार ने
इस कुत्ता-बिल्ली खेल को अभी-अभी एक खूबसूरत नाम दिया है:
विश्व-बाजारवाद।)

वे जो दया-धर्म के रक्षक है या हैं भाग्य-विधाता
गंभीर चिंतन में लीन
तू या मैं झींककर उनकी शांति न खराब करें
इसलिए पुलिस की वर्दियों की तरह उनकी लाठियां और राइफलें
मुस्तैद है मोरचे पर
क्योंकि आखिर हम दोनों ही तो है उनकी
आजादी के लिए खतरा
कि हम आजादी से इस पुलिया तक घूमने निकल आए...
जबकि इतना शोर है, इतनी भगदड़, इतना सन्नाटा...।

हमारे भीतर और बाहर लिप्टन की उम्दा पत्ती की तरह उबल रही है कविता
मगर दूर-दूर तक उखड़ी हुई पुखड़ी हुई सड़क के गड्ढे और धचके हैं
कील, कांटे, कांच और कीचड़ की छप-छप है
अभी-अभी एक बच्ची गिरते-गिरते बची है खुले मेनहॉल में
और एक औरत जो शायद उसकी मां थी/है
पत्थर हो गई है...।

पत्थर हो गई है आंख और हम जिए जाते है
और जो बत्तमीज और क्रूर और प्राणघाती है हत्यारा उसका कॉलर पकड़कर
नहीं कह पाते कि ‘साले तुझे नहीं छोड़ूगा-
... हरामजादे।‘

कैसी यह जिंदगी है, कैसी हवा...
कि कोई दवा अब काम ही नहीं आती
गालिब के शब्दों में- ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती...।‘
घाव खुले और नंगे हैं
और हर दौड़ता वाहन उन पर धूल डाल जाता है...
सो बेहतर है कि अब चलें...
चल पेपे, अब घर चलें।