भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चांदनी रात / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस दम चमन में चांद की हों खु़श जमालियां।
और झूमती हों बाग़ में फूलों की डालियां॥
बहती हों मै के जोश से इश्रत की नालियां।
कानों में नाज़नीं के झलकती हों बालियां॥
ऐशो तरब की धूम नशों की बहालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥1॥

बैठी हो चांदनी सी वह जो सुखऱ् गुलइज़ार।
और बादले का तन में झलकता है तार-तार॥
हाथों में गजरा, कान में गुच्छे, गले में हार।
हर दम नशे में प्यार से हंस-हंस के बार-बार॥
हम छेड़ते हों उसको वह देती हो गालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥2॥

ऐसी ही चांदनी की बनाकर वह फवन।
चम्पाकली जड़ाऊ वह हीरे का नौ रतन।
गहने से चांदनी के झमकता हो गुल बदन।
और चांद की झलक से वह गोरा सा उसका तन॥
दिखला रहा हो कुर्ता औ अंगिया की जालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥3॥

दी हो इधर तो चांद ने और चांदनी बिछा।
उधर वह चांदनी सा जो वह सुर्ख़ महलक़ा॥
मै की गुलाबियां भी झलकती हों जा बजा।
और नाज़नीं नशे में सुराही उठा-उठा॥
देती हो अपने हाथ से भर-भर के प्यालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥4॥

वह गुलबदन कि हुस्न का जिसके मचा हो शोर।
करती हो बैठी नाज़ से सौ चांदनी पे ज़ोर॥
छल्ले भी उँगलियों में झलकते हों पोर-पोर।
हम भी हों पास शोख़ के ज्यों चांद और चकोर॥
दोनों गले में प्यार से बाहें हों डालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥5॥

गुलशन में बिछ रहा हो रुपहला सा इक पलंग।
होती हो उस पलंग उपर उल्फ़तों की जंग॥
उस वक्त ऐसे होते हों ऐशो तरब के रंग।
जो चांदनी में देखके इश्रत के रंग ढंग॥
मै से भी झमकें ऐश की हों दिल में डालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥6॥

ईधर तो हुस्ने बाग़ उधर चांद की झलक।
ऊधर वह नाज़नीं भी नशे में रही चहक॥
देती हो बोसा प्यार से हरदम चहक-चहक।
हर आन बैठती हो बग़ल में सरक-सरक॥
मुंह पै नशों की सुर्खि़यां आंखों में लालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥7॥

निखरा हो चांद नूर में ढलती चली हो रात?
फूलों की बास आती हो हरदम हवा के साथ॥
वह नाज़नीं कि चांद भी होता है जिससे मात।
बैठी हो सौ बनाव से डाले गले में हाथ॥
गाती हो और नशे में बजाती हो तालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥8॥

आकर इधर तो चांदनी छिटकी हो दिल पज़ीर।
और उस तरफ बग़ल में जो हो अचपली शरीर॥
दिल उस परी के नाज़ो अदा बीच हो असीर।
ले शाम से सहर तईं ऐश हो ”नज़ीर“॥
सब दिल की हस्रतें हों खुशी से निकालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥9॥

शब्दार्थ
<references/>