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चार चना / कस्तूरी झा ‘कोकिल’

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बड़ी जलन जठरानल में भाय,
आबे न सहबै हो,
आबे न सहबै हो!

चार पहर, अठपहरा जे बीते
धीया-पूता जार-बेजार रोबै
चार चना अनमोल भेलै भाय,
आवे न बचवै हो!

दिन-भर खटाय जान मारलक महाजन,
अयलौं मजूरी बिना लौट आँगन।
लपट-झपट कलुआ खायले माँगै,
आबे की कहबै हो।

काली घटा दोनों आँख में उमड़ै,
देखी झोपड़िया के धीरज टूटै।
दोनों गले मिल कते हम कानवै,
कहाँ में रहबै हो?

-अप्रेल 1956, वर्ष-8, अंक-6