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चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत-4 / विवेक निराला

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 हम चार दोस्त
चार दिशाओं में
बीते कल की डोर पकड़ कर
अतीत के कुण्डों में
डुबकियाँ लगाते
काश ! हाथ आ जाए
कोई स्वर्णयुग ।

प्रथम पुरुष ने
कूच किया सरयू की ओर
क़िस्सा-गो वह
रामराज के क़िस्से में
डूबा-उतराया
कई माह सरयू के तट पर
कभी-कभी
जल भीतर घुस कर
रहा खोजता एक स्वर्णयुग ।


उसे एक स्त्री मिली
स्वर्ण-प्रतिमा में बदली हुई
अपनी माँग में
किसी राजा के नाम का सिन्दूर भरे हुए
उसके दोनों ओर
दो बच्चे थे मरे हुए ।
एक ऋषि मिले
अपने श्वेत केश खुजलाते
और लगभग शाप की तरह
मिली हुई लम्बी उम्र पर पछताते ।

उसे एक हिरणी मिली
किसी राजकुमार की छट्ठी में
सीझे हुए
अपने हिरण की गन्ध से व्याकुल
इधर-उधर भागती,
उसे एक धोबन मिली
सब दाग़ धोती
रात-रात भर रोती-जागती
विगत कल में, सरयू जल में ।

होता तो मिलता
न स्वर्णयुग राम का ।

कनक भवन की परिक्रमा कर
मक़तूल शम्बूकों से डर
सरयम से मुँह मोड़
अपना अंगौछा छोड़ वह भागा ।

सरयू में गोते खाकर
जाना उसने अवध में जाकर
रामराज स्वर्णयुग होता
तो सरयू भर पानी में
क्यों डूब मरते भगवान ?

द्वितीय पुरुष-कवि
चला गया उज्जयिनी
महाकाल के मन्दिर में गिरा
वह जाकर, गश खाकर ।

मालवा के आकाश में
उसने मेघों से होड़ लगाई
भटकता रहा बहुत दिनों तक
कालिदास की उज्जयिनी में
मेघदूत, यक्ष अथवा
विरहिणी प्रिया को
न पाता हुआ कवि
लौटा महाकाल के पास
न वैसी उज्जयिनी
न वैसे चन्द्रगुप्त न कालिदास ।

स्वर्णयुग भी वह क्या भला
जिसमें कोई
सिसकियाँ भर-भर रोता हो
कोई गान भी गाता हो
तो दुःख से फट पड़ते हों मेघ
कोई भीतर-भीतर जलता हो
और बढ़ जाता हो
पूरी पृथ्वी का तापमान ।

बिना किसी तर्क
आगत और विगत का फर्क़
इस सोने का
इस युग का हो बेड़ा गर्क़
हाय कितना विष
कैसा नर्क !

कवि बेहद निराश हुआ
और पहले से ज़्यादा
उम्रदराज़ दिखता हुआ
वहाँ से लौटा ।

अपने सुख और श्री से वंचित
गँवा कर अपना
सब कुछ संचित
भीख माँगते मिले
कवि-कुल-गौरव कालिदास ।

तृतीय पुरुष
उस इतिहासकार ने
मुस्कुराते हुए अग्नि में प्रवेश किया ।
स्वर्णयुग लाने की ख़ातिर
वह ख़ुद गोया कुन्दन बन
जाना चाहता था
यह था पूर्ण समर्पण उसका ।

अग्निद्वार पार कर
पहुँचा यमुना-तट पर
मुग़ल काल में ।

कहाँ गया वह मुगल स्वर्णयुग
ढूँढ़ा फिरा वह
दीन-ए-इलाही
मगर मिली बस उसे तबाही ।

मिले उसे
छोटी-सी कुटिया में
लगभग अज्ञातवास झेलते
मानस पर जमा
धूल की परतें
पोंछ-पांछ कर साफ करते
जर्जर तुलसी ।

विनय पत्रिका का अकाल
इतिहासकार को
पहली बार दीखा ।

पहली बार ही उसने जाना
जैसे मिट्टी की
परतों के नीचे और परत
वैसे ही इतिहास के नीचे
एक और इतिहास ।

कह ही दिया जाता है अकथ्य ।
एक सत्ता के समानान्तर
दूसरी सत्ता
सत्य की, साहित्य की ।

अबुल फजल, अल बरूनी
स्मिथ, हेग, टॉड वगैरह
जब लिखते हैं इतिहास
मुस्कुराते हैं स्वर्णयुग ।

कोई स्वर्णयुग
जब मक़बरे में तब्दील
होता है
तब सिरहाने के पत्थर पर
चीख़ता है झूठा समाधि-लेख ।

हताश इतिहासकार
वह तृतीय पुरुष
सीकरी के
एक लाल पत्थर
पर सिर पटक कर
रोने लगा ।
उड़ चले खून के छींटे
टूट गया विश्वास
उसके फटे हुए सिर के साथ ।

समय के शिलालेख पर
दर्ज हो शायद कभी
एक टूटा हुआ इतिहासकार
और उसके रक्त से
हुआ और गहरा वह लाल पत्थर ।

ख़ून से भीगा
इतिहासकार
डूबते सूर्य की तरह लौटा ।

चौथा पुरुष
लोकतन्त्र का चौथा पाया थामे
हवा को सूँघता
और वायु के साथ ही
पहुँचा नेहरू के युग में ।

आधुनिक भारत के
स्वर्णयुग की तलाश में
टकराया भूल से
किसी की छाती में
गड़े त्रिशूल से ।

छूरों और कटारों से
लुकता-छिपता वह भागा
खुली आँख
स्वर्णयुग ढूँढा
तभी दीखा कोने मे
हे राम ! कहता एक बूढ़ा ।

अचानक दृश्य बदला
और उसने देखा
ख़ून की एक गहरी लकीर
जहाँ बाँट रही थी
इस महादेश को
ठीक वहीं
गोली चली
और मारा गया इतिहास-पुरुष,
अकाल-पुरुष वह वृद्ध ।

उसकी आँखे
कीचड़ से चिपचिपी हो चलीं
उसके नथुनों में
प्राणवायु के साथ
घुसने लगी सड़ रही लाशों की दुर्गन्ध ।

जरायमपेशा लोगों का
पूरा जमघट लगा हुआ था ।

आश्चर्य और सन्ताप
के मिश्रण से
वह भरभरा कर गिर पड़ा ।

खुदाई खिदमतग़ारों की
मदद से किसी तरह
एक रेलवे स्टेशन
पहुँचकर उसने पाया
कि यह शहर चण्डीगढ़ था
और उसका
‘प्रेस-पास’ कहीं गिर चुका था ।

वायु-गमन के बाद
रेल से पहली बार बिना टिकट
यात्रा में
पकड़े जाने के भय से
वह गन्तव्य स्टेशन से पहले ही
आउटर पर
चलती ट्रेन से कूद पड़ा
और अपने हाथ-पाँव तुड़वा बैठा ।