भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चालीसवें जन्म दिन पर / प्रकाश मनु

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक-एक कर खोटे सिक्कों की तरह उछालते
एक-एक साल
मैंने बिता ही लिए आखिर अपनी उम्र के
चालीस साल
चालीस खोखले साल
इस दुनिया में जिसमें
नहीं तिल भर ममतालु जगह मेरे लिए
नहीं कंधे पर कोई हाथ
सामने कोई पगडंडी...रास्ता...

आज सोचने बैठा हूं कि अगर कभी सोचूं
कि हासिल क्या हुआ इस सारे घमासान का
जो रात-बिरात पीता रहा मेरे ही सीने
का लहू-तो
क्या लगेगा हाथ?

कुछ टूटे खिलौने कुछ भ्रम कुछ पाश कुछ
काली बेरौनक इबारतें इमारतें जिनमें काम करने
जाता तो देर रात लौटता था शव
आह!
लहू और पसीने से तरबतर यह महासंग्राम
कितने सस्ते में गया

मुश्किल-कितना मुश्किल है संवाद एक झुलसे
हुए वर्तमान से
अगर आप बीचों-बीच खड़े युद्धभूमि में
और आज और कल की संधि के बीच
सिवा सड़े मुर्दों और चीलों के कुछ भी नहीं

मगर आप ठीक-ठीक देख सकते हैं
एक नंगे चिलचिलाते पठार पर बोझा लादे
आती-जाती यात्राओं
और जाते-आते समयों में
फर्क कुछ नहीं

सिवा इस बात के
कि तब हम दोस्तियों की कसमें कुछ ज्यादा
ही खाते थे
कभी-कभी एक-दूसरे के कंधों पर रखकर हाथ
बातों में बहते तो कुछ ज्यादा ही बहते जाते थे
बुनते थे ऐसे सपने
जिनके पूरा होने की नहीं होती थी उम्मीद

फिर भी अपनी तड़प से दूसरे की तड़प तक
आने-जाने के चोर रास्ते खोज निकाले थे हमने
खतरनाक थे मगर चिंताओं केे सांप पाले थे हमने
आज लटके हैं उलटे वे सारे के सारे मृत सर्प
हमारी खूंटियों पर सीली हुई रस्सियों से
आज चौंकता हूं देखकर कि कुल जमा एक-डेढ़ दशक में
सारे के सारे रास्ते
अभेद्य दीवारों में बदल गए

और आज बचा-बचाकर एक-दूसरे को छूते
बचते हुए एक-दूसरे की आंख
में अटके जालों से
जब हम चालाक बिल्ली के से चौकन्ने पैरों से
एक-दूसरे की अंधी दुनिया में प्रवेश करते हैं
तो
बड़ी मुश्किल से रोकी गई ईर्ष्या
न दबाई गई नफरत
और चेहरे की मरी खाल के सिवा
कुछ नहीं होता हमारे हाथ

चेहरे पर अजीब बेढंगेपन से लिखी
भिनभिनाहट
पोंछने की कोशिश में अक्सर बन जाते हैं हम
नाटक के पात्र विदूषक
नुकीली मूंछों वाले
-प्रचीन इतिहास काल की आत्मा!

अजब खेल है यह
अजब इसके कायदे
जो हम खेलते हैं संभल-संभलकर
हम जो शर्म के मारे देख नहीं पाते एक-दूसरे
की आंख में!
अक्सर अंधी आवाजों के पुल बनात हैं
टूटे पुलों और घिसे खुरों से एक-दूसरे तक
आते-जाते
हमारे थके पैरों पर चली आती है अधकचरी
समीक्षाएं
एक-दूसरे की कमजोर
हकलाती नसों की
(जिन्हें एकान्त के विश्वास में क्रूरता उतार
उघाड़ा था किसी ने हमारे आगे
किसी दुखियारे क्षण में)

और हम खुश हैं
(अपनी मत्त, भिंची आंखों
में हम खुश हैं!)
और हमें नींद बहुत आती है
अकेले में
जिसे हम जमुहाइयां ले-लेकर भगाते हैं

अक्सर हम देख नहीं पाते
हमारी ही गरदन पर
हमारे ही चेहरे पर बगल में
उगता
एक और चेहरा
हंसता हम पर
हमारा ही विद्रुप हमशक्ल
हमें नजर नहीं आता
गो कि हमारे सबसे नजदीक वही होता है

भद-भद भदर-भदर भदभदाता हंसता है वह
तालियां पीटता मेजें थपथपाता जोर-जोर से
हमराज दोस्तों की महफिलों में
ऐन शातिर क्षणों में-
जब हम
घुन्नी आंखों से तोल रहे होते हैं एक-दूसरे को
पढ़ाई-लिखाई बच्चों का हालचाल ठहाकों के बीच
हिसाब लगाते अपनी और उसकी जेब
का फर्क
कि कुल मिलाकर तो वह हमसे छोटा ही हुआ न
क्या हुआ जो लिख लीं उसने पचीस-पचास कविताएं
दो-एक कहानी-वहानी उपन्यास!

आखिर तो आदमी और आदमी का रिश्ता
जेब और जेब से ही तय होना हुआ न?
या फिर इस बात से कि किसी की नाक
किस कोण से उठी या झुकी है जेब में
कितने हैं छोटे-बड़े छेद कितनी सुरक्षा!

इस पालतू समझदारी तक आने से पहले ही
हम काई लगे पत्थरों से
बना चुके होते हैं अपने किले
कि अगर यही है दुनिया का
कायदा
तो इसे मानने में ही है हमारा फायदा
और फिर लोग तो क्या कुछ
नहीं कर गुजरते
हमने तो अभी लिए हैं दा-चार ही डकार!

ताज्जुब यह नहीं
कि मूल्यों और मुद्दों के हेरफेर वाली
इस गंधाती मंडी में
हम कितनी जल्दी कीचड़ में सन गए
गिरे धुने कुचले गए
ताज्जुब यह कि हमारे बड़े-बड़े वाचाल आदर्श
पाथेय थे सिर्फ एक छोटी लड़ाई के लिए
जिसमें सिर्फ हमारा छोटा सरकारी
परिवार आता था

बीवी दो बच्चे
और खब्त दो-चार

यहाँ तक आते-आते
क्रांति और एयरकंडीशनों के बीच
गड्डमड्ड
हमारी दुनिया में
कुछ भी तय नहीं-
कि कौन से तर्क की खूंटी से लटककर
हम किधर चले जाएं
कागजों की शक्ल में क्या कुछ चबा जाएं
अलबत्ता गहरी आंखों वाला एक चौकन्नापन
जरूर है हमारे हिस्से
कि हम कुछ भी कहें न कहें (क्या फर्क पड़ता है!)
जब भी मिलें हमारी सवालिया नजरें
टटोल जरूर लेती हैं दूसरी तरफ का मैदान
कि कितनी छोटी कुर्सियां कितने बड़े
सिंहासन हैं तुम्हारे आसपास
कितने लोग हैं तुम्हारे नीचे
तुम्हारी एक आवाज पर तड़पते
निरीह पंछी

कितने हैं

क्योंकि आज हम बहते नहीं
(क्योंकि बहना भावुकता है, मूर्खता, बोदापन!)
टिके हैं ठोस सत्यों पर
पास हैं हमारे जीवन के ठोस निष्कर्ष

या फिर अगल-बगल
पड़ोसी की जबरन नमस्ते जैसी
सस्ती दया और दयानतदारियां तो हैं ही
कि भाई साहब आप लेखक हो यह तो ठीक
मगर करते क्या हो
कमाते हो क्या ठीक-ठाक...
रोटी-पानी चल जाता है तुम्हारी अपनी
तनखा से
कि परेशान करते हो रिश्तेदारों को रात-बिरात
उधार और दोस्तांे की मेहरबानियां
से ही तो नहीं चलती
कहीं तुम्हारी गृहस्थी?

आज चालीस खोटे सिक्कों की तरह
चालीस बरस खरचने के बाद
एक-एक कर याद आ रहे हैं घुन्ने सौदागरों
के चेहरे
(डंडी मारते घाघ!)
जो इस हाथ से उस हाथ में उछाल-
उछाल
नंगी नजरों से कीलते रहे छीलते रहे जिस्म
तेज ट्यूबलाइटों ठहाकों के बीच
सरे बाजार मोल

कीलें-कितनी-कितनी
कीलें
जिस्म के हर हिस्से में
देखोगे नंगे घाव!
एक खाई हुई भुरभुराती देह का त्रास
कि उस तक तुम्हारे शब्दकोशों से बहकर आई
कविता नहीं जाती

साहित्य आलोचना के ओ रसशास्त्रीय
घुग्घुओ!
कि यह कविता में गर्क हुई जिंदगी
की तकलीफ है
जहां मैं
मैं हूं
एक अधमरा कवि
आधा जिन्दा और खतरनाक
जिसके सिर में कंधों पर
हाथ-पैरों में कीलें
कीलें ही कीलें ठोक दी है तुमने

कीलें-कितनी कीलें!
लगता है
अब बाकी जिंदगी शायद कीलें निकालते
ही बीते
और बीते न बीते
क्या फर्क पड़ता है

क्या फर्क पड़ता है
अकाल की चपेट में आया खजैला कुत्ता
आज मरे या कल
सच तो सिर्फ इतना है
कि मौत के काले डैनों के आगे लेटा है वह
अपने नंगे, खुले घावों के साथ
लेटा है निस्पंद
मक्खियों और मक्खियों की भिनभिनाहट
के
बीच
और उसका सारा शरीर खाज ने खा लिया है।