इस छोर से उस छोर तक घूमती नि:शब्द निर्जनता में
अन्धेरी शाम की तेज़ अकेली हवा में
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठण्डा, चान्द की तरह पाण्डुर
नीरक्त, सफ़ेद चेहरा
विपुल आकाश की ओर।
दूर देस में मैं काँपता हूँ
चाहत की असह्य वेदना से —
तुम्हारे श्वेत पाषाण-सदृश मुख को घेरे
काँपती हैं —
आर्त प्रार्थना में उठी हज़ार उँगलियों की तरह —
बालों की पतली लटें, बिखरी अलकें
अन्धेरी हवा में।
घिर आए बादल अपने ही भार से आकाश के एक कोने में जमा हो गए —
उस पुंज के बीच बार-बार ज़ोर से कौंधती है
कामना की तड़ित् ;
प्रचण्ड आवेग से फेनिल होता प्रेम का अबाध्य प्रवाह
अन्धकार के सीमाहीन अन्तराल और
विचारमग्न, स्थिर धरित्री की घन कान्ति को
अस्थिर करता है।
तुम उठाती हो अपना
बादलों-सा ठण्डा, चान्द की तरह पाण्डुर मुख,
रोते-रोते थककर चुप हुई धरती के उठते-गिरते स्तन,
प्रार्थना में क्लान्त, विकल, दुर्बल, दीर्घ प्रत्याशा के हाथ,
विपुल, विक्षुब्ध आकाश की ओर उठे —
और सबको घेरकर फैला अन्धकार, तुम्हारे विरल केश,
असीम, एकाकी हवा में असंख्य स्वरों वाले वाद्य।
धीरे-धीरे सृष्टि प्रस्तुत होती है, मानो
मर्मभेदी एक मधुर मुहूर्त में दु:सह वज्र बनकर टूटता है उसकी चाहत का बादल
तुम्हारे उद्धत, उत्सुक, प्रसारित, विदारित वक्ष के मध्य
मिलन की पूर्ण प्रेमाकुलता के साथ ―
उसके बाद भीगी, अस्तव्यस्त, भग्न पृथ्वी की गन्दगी साफ़ कर
आता है सुन्दर, शीतल, ममता-भरा विहान
मूल बंगला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा और शिव किशोर तिवारी
(काव्य संग्रह “दिनगुलि रातगुलि” (1956) में संकलित, मूल शीर्षक- आकांखार झड़)