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चित्रे-2 / दिलीप चित्रे

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एक धृष्ट लहजे में
दाँते और रिम्बॉद पर सोचते हुए
बोटेसली की शैली कृत इनफ़र्नो में
कविता के नीले घोड़े पर वह सवार था
एक महत्वाकाँक्षी पापी
अपने भोलेपन से शर्मिंन्दा

सीझता हुआ पाप में, ढूँढ़ता नारी देह का धीमा विलोप
वह कोई विजेता नहीं था
चित्र समाप्त हुआ जहाँ अँधेरा और ठण्ड है

और जहाँ से कोई प्रेमी लौटता नहीं है
बिना कड़वे ज्ञान के
और चित्रे तो फिर भी एक क़िस्म का हिन्दी ही है

और हर हिन्दू की तरह
वह अपेक्षा रखता है अपने कर्मों के फल की ।