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चिर-नूतन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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विस्तीर्ण करो ओ अग्निपूत, ओ आप्तकाम;
दर्शन की अन्तर्केन्द्रपरिधि का दर्पणतल।
स्वर ध्वनित करो दूरंगम अर्थ-सुपर्णों का-
अनिरुक्त पंख जिनके धुनते दिगन्तमण्डल।

यदि गुन सकते, तो गुनो गणित के अंकों से,
जीवन-मन्वन्तर को अनन्त परिमाण भरे?
आसमुद्रान्त पृथिवी की वेदी पर मन्द्रित,
चिन्मय ध्वनि-व्य´्जन को स्वाहा-सन्धान भरे!

युग के विराट दिक्स्वस्तिक पर कुण्ठा का तम,
बहिरन्तर द्वन्द्वभ्रान्तियों का कुहरा काला।
धधकाओ उसमें अन्तश्चेतन मानस की-
आज्याहुति से हेभाभरश्मियों की ज्वाला।

वाणी में अर्थकमलदल के ध्वनि-परिमल को-
सुर चिर-नूतन का भरने दो, ओ स्वरसाधक;
दो दूर हटा उन विधा-सरणियों को कुण्ठित-
जो ज्वराक्रान्त मतवादों से गतिपथमापक।

(30 अक्तूबर, 1973)