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चीजें अब उतनी आसान नहीं रहीं / प्रकाश मनु

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चीजें अब उतनी आसान नहीं रहीं दोस्त
कि तुम छुओ और हम ढह जाएं
भुरभुरी रेत या घुन लगी दीवार की तरह।

कि तुम्हारी सबसे छोटी उंगली के उठते ही
निकले उसमें से ऑटोमेटिक आग...गोली...धांय...धूं...
ओर हम लमलेट हो जाएं तुम्हारे चरणों पर
और हमारी ताजा लाशों पर चढ़ाकर ताजा
खुशबूदार फूलों के हार
तुम कहा मसकराते हुए टी.वी. के कैमरे से
कि मैं हूं सही
क्योंकि मैं ऊचीं कुर्सी पर हूं
क्योंकि मैं हो आया हूं आयोवा और मेरी
डायरी बड़े से बड़े रिसालों में छपी है धारावाहिक
क्योंकि मेरे माथे पर है त्रिपुंड
मुझे जानती है दुनिया !!

जबकि मरने वाले को जानता ही कौन था
कुछ मरगिल्ली भूरी चींटियों के सिवा
जो थीं जमीन के भीतर-
बहुत भीतर...नीम अंधेरे में।

मरने वाले को तो मरना ही था
क्योंकि उसने रास्ता ही गलत चुना...
उसे मारा नहीं किसी ने
वह तो खुद ही मरा घिस-घिस के पत्थर पर माथा।
यह हकीकत है...
ऐसी घिसी हुई भाषा घिसी जिंदगी
घिसी चप्पलों वाले के लिए
कैसा दुख...कैसा शोक...कैसी शोकांतिका।।

मृत्यु ही है उसकी मुक्ति
वरना और खराब होती मिट्टी।
तो इसलिए...मौज करो...मौज...
(मरने वाले के साथ कोई मर नहीं जाता)
बड़े करीने से मुसकराता है आयोवा से अभी-अभी घर लौटा
ताजा छरहरा नौजवान।

नहीं-नहीं, चीजें अब उतनी आसान हीं
रहीं दोस्त
कि तुम इसलिए हर बार सही हो जाओ
कि तुम बड़े अखबार में हो
और बड़े-बड़े हैं आजू-बाजू... (तुम्हारे ताबेदार।)
कि दिल्ली का सबसे लम्बी नाक वाला आलोचक
तुमसे रोज मिलाता है हाथ...
तुमसे राय मांगने लोग सुबह से लाइनों में लगे हैं
और हम अकेले हैं अपने बोरिया पर उदास
अपने गालिब अपने निराला से करते हुए गुफ्तगूं
अपने दुर्भाग्य और अपने बुरे दिनों को याद करते हुए।

हम इसलिए निकृष्ट हैं ठूंठ हैं कूड़ा हैं
क्योंकि हमारे मरने पर भी जमा नहीं हुए
दो-चार जन
और वे जो मैले थे कुचैले
उन्हें खदेड़ा गया अकादमी से
बाहर लॉन के एक कोने में गर्दन झुकाए हुई शोकसभा।

यूं भी तुम्हारे हाथ एक समीकरण तो है ही
जिसे जब तक चाहो तुम चुभलाते रहो
लाल आश्वस्त गालों से
कि तुम्हारा जीना तुम्हारी जीत
मेरा मरना मेरी हार...
बड़े-बड़े जब सिधार गए
तो तुम जिंदा हो-यही है तुम्हारे ताकतवार
होने का सबसे बड़ा सबूत।

नहीं-नहीं, चीजें अब इतनी आसान
नहीं रहीं दोस्त

तुम्हें शायद पता नहीं
लड़ाइयां जो जीते जी सुलझ नहीं पातीं
उनके फैसले और दंश मरने के बाद
भी चलते है

दूर-बहुत दूर तलक...।

और कम से कम वे फैसले जो होते हैं
उनमें यह नहीं चलता
कि तुम बैठे हो बड़ी कुर्सी पर
कि तुम हो आए हो आयोवा
और तुम्हें सलाम करते हैं तीन सौ छत्तीस जन...

और मैं पुलिया पर बैठा हूं अकेला
अपने गालिब अपने निराला के साथ
नाले की कड़वी गंध और लारियों की धूल फांकते
(भूत पुलिया का।)
और अपने छोटे और लगभग बीमार शहर से बाहर कभी नहीं गया।

मगर...
मगर भाई, इससे क्या ?
चीजें अब इस कदर आसान नहीं रहीं ...
कि राजधानी की किसी शानदार कलादीर्घा के पप्पूनुमा शेर
या रबड़ के भालू की तरह उन्हें जो चाहे
जब चाहे
अपने पक्ष में मोड़ ले!