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चेहरों की दुकानें / वीरभद्र कार्कीढोली

Kavita Kosh से
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उड़ रहे हो। देख रहा हूं तुम्हारा उड़ना
यह कैसी उड़ान है हठात की आश्चर्य की
वस्तुतः तुम्हें उड़ते देखना चाहता हूं
ऊपर और ऊपर/ पर
ऊपर से बहुत ऊपर नहीं!

आसमान पर पहुंच रहे हो उड़कर
अनभिज्ञ थे, आसमान से तुम भी
अनुमान कर न सका
त्रास है, मुझ में
कि इस वक्त तुम्हें क्यों
सूक्ष्म से अति सूक्ष्म देख रहा हूं!

वह आसमान ही वैसा है
यथार्थ और सम्पन्न ही- कह नहीं सकता
यह कैसे भय उभरता है
पंख की तरह मेरे भीतर
कि तुम्हें पंख देकर क्यों उड़ा ले गया!
किसने दी हिम्मत उड़ने की !!

उड़ान की भी रफ्तार होती है
उड़ान की भी सरहद होती है!
तुम, उड़कर आसमान को पारकर
जाने पर भी
खुशी नहीं है मुझे
संत्रास तो इस बात का है

कि यहाँ से उड़ा ले जाने वाले / उड़ने वाले
आसमान पर पहुंचने पर उन्हें
बाज और चील की तरह देखता हूं
और उन बाजों और चीलों के पंख
आसमान में आसमान के जब्त करने पर
सच, वह ऐसी हालात में गिरा है
जहां वह अपना चेहरा जब्त कर
खड़े होने की स्थिति में
क्षत-विक्षत चेहरों की दुकान पर
उधार चेहरा खरीद रहा है।
यूं तो तुम्हारी उड़ान से
संतुष्ट नहीं हूं मैं
उड़ने से पहले तुम्हारी आतुरता देखकर
पूछना ही भूल गया हूं- तुम्हे
ऐसे उड़ान के लिए पैख किसने दिए तुम्हें?
क्यों दिए??
पंख देकर फिर तुम्हें ही क्यों
उड़ा ले गया?
उड़ते वक्त चुपचाप उड़ने का साहस तुम्हें
किसने दिया? किसने?