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छाया, छाया तुम कौन हो / अज्ञेय

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छाया, छाया, तुम कौन हो?
ओ श्वेत, शान्त घन-अवगुंठन! तुम कौन-सी आग की तड़प छिपाये हुए हो? ओ शुभ्र, शान्त परिवेष्टन! तुम्हारे रह:शील अन्तर में कौन-सी बिजलियाँ सोती हैं?
वह मेरे साथ चलती है।
मैं नहीं जानता कि वह कौन है; कहाँ से आयी है; कहाँ जाएगी! किन्तु अपने अचल घूँघट में अपना मुँह छिपाये, अपने अचल वसनों में सोयी हुई, वह मेरे साथ ऐसे चल रही है जैसे अनुभूति के साथ कसक...
वह मेरी वधू है।
मैं ने उसे कभी नहीं देखा। जिस संसार में मैं रहता हूँ, उस में उस का अस्तित्व ही कभी नहीं रहा। पर मेरा मन और अंग-प्रत्यंग उसे पहचानता है; मेरे शरीर का प्रत्येक अणु उस की समीपता को प्रतिध्वनित करता है।
मैं अपनी वधू को नहीं पहचानता।
मैं उसे अनन्त काल से साथ लिवाये आ रहा हूँ, पर उस अनन्त काल के सहवास के बाद भी हम अपरिचित हैं। मैं उस काल का स्मरण तो क्या, कल्पना भी नहीं कर सकता जब वह मेरी आँखों के आगे नहीं थी; पर वह अभी अस्फुट, अपने में ही निहित है...
वह है मेरे अन्तरतम की भूख!
वह एक स्वप्न है, इस लिए सच है; वह कभी हुई नहीं, इस लिए सदा से है; मैं उस से अत्यन्त अपरिचित हूँ, इस लिए वह सदा मेरे साथ चलती है; मैं उसे पहचानता नहीं, इस लिए वह मेरी अत्यन्त अपनी है; मैं ने उसे प्रेम नहीं किया, इस लिए मेरा सारा विश्व उस के अदृश्य पैरों में लोट कर एक भव्य विस्मय से उस का आह्वान करता है, 'प्रिये!'
छाया, छाया, तुम कौन हो?

दिल्ली जेल, 3 दिसम्बर, 1933