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जगत के लिए बेमानी ही रहे तुम्हारे शब्द / संजय तिवारी

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स्थितियों के सम्मुख
आशंकाओं का अम्बार
यही है संसार
प्रश्न तो
जनक के दरबार में भी उठे थे
सूक्तियों की दी जाने वाली
हर परिभाषा के
शब्द झूठे थे
लोक से उठे सवाल गूढ़ थे
विद्वानों के तर्क अनूठे थे
एक ऋषि ने ही किया था संधान
याज्ञवल्क्य थे
यही था महामुनि का नाम
बिना किये विश्राम
समझा दिया था
पुरुष सूक्त का व्यापक विधान
वर्ण व्ययस्था से निकले प्रश्नो को
मुनि ने उपलब्ध करा दिए हल
असंतोष और निराशा को
कर दिया निर्बल
तुम्हारे भीतर भी
यदि जन्मा था कोलाहल
तो हल खीजते
दर्शन से मुनि कुल तक
पसरे अनंत ज्ञान सागर में
पा जाते
निश्छल? निर्विवाद ज्ञान के मोती
तब तुम्हारी चर्चा भी
कलियुग के याज्ञवल्क्य सी होती।
पर
तुमने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया
सनातन ज्ञान गंगा में
न डूबे
न उसका जल ही पीया
 तुम्हें शायद कही और से थी
कुछ ख़ास पाने की आस
इसीलिए नहीं बुझ सकी
ज्ञान की तुम्हारी प्यास
न ग्यानी ही हो सके
न अग्यानी ही रहे
संसार अपनी ही गति से बढ़ा
तुम्हारे शब्द
जगत के लिए बेमानी ही रहे।