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जड-चेतन सबमें जो सदा देखता / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग कामोद-ताल दीपचंदी)

 
जड-चेतन सबमें जो सदा देखता एकमात्र भगवान।
सबके सेवा-हितमें जो कर देता अपना सब बलिदान॥
निज सुख-दुखमें सदा देखता जो प्रभुका कल्याण-विधान।
क्षमावान्‌, पर-दुःख-दुखी जो, पर-कल्याण-निरत मतिमान॥
जिसके इन्द्रिय-प्राण, बुद्धि-मन-देह सभी प्रभु-सेवा-लीन।
रहते सदा, त्याग अग-जगका सारा ही सबन्ध मलीन॥
सदाचार-रत रहता, पर करता न कभी किञ्चित‌ अभिमान।
जन्म-कर्म-वर्णाश्रम-कुलमें रखता नहीं राग विद्वान॥
राग-द्वेष रहित प्रभु-सेवा-हित करता विधिवत्‌‌ व्यवहार।
पर न कहीं भी, कुछ भी करता अहंकार जो किसी प्रकार॥
एकमात्र प्रभुमें ही रहती जिसकी सब ममता-‌आसक्ति।
कर्ममात्र होते प्रभु-पूजा, प्रभुमें ही होती शुचि भक्ति॥
नहीं विमोहित कर पाते जिसको भुवनोंके दुर्लभ भोग।
नहीं त्याग करता, कैसे भी, वह शुचि प्रभु-स्मृति का संयोग॥
प्रभुके शुचितम मधुर मनोहर लीला-नामोंमें अनुरक्त।
सदा-सर्वदा रहता, होकर सभी वासना‌ओंसे मुक्त॥
दैवी सपद्‌‌के गुण जिसकी सेवा कर नित होते धन्य।
भुक्ति-मुक्ति का त्यागी, अति बड़भागी प्रभुका भक्त अनन्य॥
प्राणि-पदार्थ-परिस्थितिमें सम, नित्य-निरन्तर द्वन्द्वातीत।
निकल रहा जिसके अणु-‌अणुसे नित्य मधुर प्रभुका संगीत॥
इस प्रकार जो दिव्य गुणों-भावोंसे युक्त नित्य रमणीय।
वही श्रेष्ठ प्रभु-रत वैष्णव है, सेवनीय अति आदरणीय॥