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जन्मान्तर यात्राएँ की हैं / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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जन्मान्तर यात्राएँ की हैं, मेरे एक प्रसंग ने!
मुझ को, मुझ-पर छोड़ दिया है अन्तरंग-बहिरंग ने!

कितने रूप मुखर रहते है मेरे रूपाकार में,
मझधारों में रहकर भी, मैं बहता अपनी धार में,
सिन्धु-सिन्धु कर दिया मुझे, मेरी ही एक तरंग ने!
मुझ को, मुझ-पर छोड़ दिया है अन्तरंग-बहिरंग ने!

मैंने तापस-धर्म जिया है, अन्तर्मन के ताप से
मुझे अयाचित मुक्ति मिल गयी, वरदानों के शाप से
नाग-पाश से मुझे बचाया, एक निहंग-विहंग ने!
मुझ को, मुझ-पर छोड़ दिया है अन्तरंग-बहिरंग ने!

उच्छवासों में परिमल उतरा, नीलोत्पल आकाश से,
अन्तराल का शून्य भर गया, गन्ध-लदे मधुमास से,
मुझे अमृत की सीमा तक, मथ डाला एक उमंग ने!
मुझ को, मुझ-पर छोड़ दिया है अन्तरंग-बहिरंग ने!

मैं अलंघ्य क्षण लाँघ गया हूँ, प्राणान्तक उल्लास में,
कालान्तर इतिहास लिख गया, मन्वन्तर इतिहास में,
मुझे दे दिया रस विदेह का, रस-सम्राट अनंग ने!
मुझ को, मुझ-पर छोड़ दिया है अन्तरंग-बहिरंग ने!