भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जन्म-दिन, ऋतु-चक्र और पितृ-ऋण / योगेन्द्र दत्त शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भाद्रपद के सुरमई, भूरे, सलेटी मेघ
कांधे पर धरे
नीले कुहासे, बैंजनी कुहरे, गुलाबी धुंध की
पगडंडियों को पार करता
भुरभुरे आकाश की रक्तिम सुनहरी झील पर
फिर आ गया
आलोकधन्वा सूर्य-धींवर
सुगबुगाई है किरण भिनसार की
फिर स्पर्श दे
अपनी सुकोमल उंगलियों का
वह जगाकर कह रही मुझसे-
‘उठो, जागो,
बधाई तो करो स्वीकार मीता!
आज मंगलमय तुम्हारा जन्म-दिन है!’

अचकचाकर जागता हूं
नींद से बोझिल पलक
सायास उठकर खोलता हूं
थकी आंखों में समूचा दृश्य
सहसा तोलता हूं-
दिन उगा सचमुच
कि स्वप्निल जगत में ही रम रहा हूं
स्वप्न में ही तो कहीं
कोई न यह संदेश लाया-
आज मेरा जन्म-दिन है!
जन्म-दिन की शुभ घड़ी में भी
न जाने चित्त क्यों इतना मलिन है!
वस्तुतः क्या आज मेरा जन्म-दिन है!

और तब यह देखता हूं-
स्वप्न का कोई नहीं संकत या आभास
यह वास्तव जगत का सत्य है
मिथ्या नहीं
यह भोर ही है!
मेघमय आकाश में सूरज निकल आया
सितारे, चांद-
सब डूबे
किसी सुनसान घाटी में
किरण भिनसार की आई खड़ी चुपचाप सिरहाने
जगाती है मुझे!

और मुझको याद आता है
कि मेरा जन्म-दिन है
जन्म-दिन मेरा
कि यानी एक सीढ़ी और कर ली पार मैंने
इस अदेखे और अनजाने सफर की
यह महायात्रा,
जिसे जीवन कहा जाता...!

यह महायात्रा,
सुरंगों, खंदकों, गुमसुम अंधरों से भरी है!
पथ कंटीला
और रेतीला मरुस्थल
हैं जहां विश्राम के दो-चार क्षण दुर्लभ
हरित, शीतल नहीं छाया कहीं कोई
किसी छतनार बरगद की!
अगम, दुर्लंघ्य पर्वत!
तप्त बालू पर घिसटता हांफता है
मोमिया, मासूम-सा खरगोश
सहता जेठ की तपती दुपहरी पीठ पर
अपने मुलायम रेशमी रोएं जलाता!
और कंचन-देह हिरना
आंख-फाड़े दौड़ता
दो बूंद पानी के लिए
पर लड़खड़ाकर रेत पर बेहोश गिर जाता!
वहीं औंधी पड़ी काली हुई उस देह से
उठकर अचानक आंख दो
चटकी-दरकती प्यास लेकर देखती हैं-
वेदना का अधजला विस्तार!

लेकिन जल नहीं,
छल और केवल छल
मरुस्थल की वही भटकाव!
चटका कंठ, प्यासी आंख, झुलसी देह
पांवों में थकन, छाले
लहू रिसता हुआ हर रंध्र से!

वे पंख-झुलसे, अनमने, थकते कबूतर!
और सूखी झील में
वे सिर पटकते हंस
अकुलाते, भटकते, हूकते
खाते पछाड़ें तप्त बालू पर!

इसी का नाम यात्रा है!
यही यात्रा बड़ी दुर्दान्त
लंबी है
कठिन है!
और इस विश्राम-क्षण का नाम
शायद जन्म-दिन है!

फिर तपन के बाद की बरसात का परिदृश्य!
भीगा सांवला आकाश
धुंधलाया हुआ वातास
उमड़े और घुमड़े घनघनाते मेघ
बिजली की कड़कती कौंध
डबराती नदी में क्रुद्ध भीषण बाढ़ का आतंक!
टूटे पुल
कछारों पर भहरकर टूटती
मिट्टी कगारों की!
उफनता-फनफनाता जल

समूची धरित्री जलमग्न!
बहते छान-छप्पर, झोंपड़ी, धन-धान्य
भीगे आर्त स्वर में छटपटाते, चीखते बेबस मवेशी
जल-प्रलय का रौद्र तांडव!
मूक शव फूले हुए
गुमसुम मछेरों की गुजरती टोलियां
बस भीषिका ही भीषिका!

रिसती हुई छत
कांपकर तड़की हुई दीवार
धंसती नींव
ढहते नीड़
सिमटे, सिकुड़कर बैठे हुए परिवार
उजड़े खेत
आहत-ध्वस्त-क्षत घर-बार
सहमे लोग!
काला ज्वर, महामारी
कहीं चेचक, कहीं हैजा
भयानक और संक्रामक विषैले रोग!

यह कैसा दुखद, त्रासद
विकट बरसात का मौसम
कि जिसमें कूकती कोयल हुई है
शापिता
निर्वासिता

धारण किये है मौन!
दादुर ही जहां बस टरटराते हैं!
जहां रौंदे हुए सुरचाप तम में डूब जाते हैं!
जलाशय में जहां खोया हुआ
मन का पुलिन है!
और, इस जल-यातना से
द्वीप-सी उभरी हुई मरुभूमि-सा
यह जन्म-दिन है!

सांवला आकाश निर्मल हो गया!
वर्षान्त के क्षण में
अकेला मेघ-छौना
ले रहा है एक वृत्ताकार झीना-सा
जिसे सबचांद कहते हैं!
किसी तपभ्रष्ट योगी-सा
गगन में ऊंघता
पीला थका चेहरा लिये
वह भी शरद् की पूर्णिमा की रात को!

पहले कभी इसकी जुन्हाई
हो गई थी लाल
शायद लाज से!
लेकिन वलाका पंख जैसी चांदनी
अब दीखती पीली
उदासी में घिरी
अवसाद में डूबी
थकी, बीमार, चितकबरी
कि जैसे पीलिया से ग्रस्त हो!

इसकी उमगती भंगिमा को क्या हुआ?
क्यों मौन, गुमसुम, नत, मलिन है!
इस विजृंभित चांदनी-सा ही विकल
यह जन्म-दिन है!

हिमच्छद आकाश में घिरती हुई यह सांझ हेमंती!
सघन निस्तब्धता छाई
खड़कता है न पत्ता एक
बहती है नदी चुपचाप
पंखों को समेटे
नीड़ में दुबके हुए खामोश वनपाखी!

किसी मीनार से गिरकर
पड़ीं बेहोश आवाजें,
हुई सुनसान पगडंडी
नहीं है शेष कोई गूंज या अनुगूंज
झरने की!

बयाओं की डरी आंखें
भयावह मौन के आतंक से सहमीं
लटकतीं ठूंठ पर
चमगादड़ों की प्रेत-आकृतियां
उलूकों की बढ़ी सरगर्मियां

मूचर््िछत सभी संदर्भ
गश खाया हुआ वातावरण
परिवेश भौंचक्का
समय-सीमांत पर बुझती हुई कंदील
मौसम हो गया अभिशप्त
कापालिक बढ़ाते जा रहे साम्राज्य
सन्नाटा हवाओं में घुला
चट्टान उग आई
अंधेरे की!
क्षितिज को कीलती हैं
चुप्पियां...ऽ...ऽ
बस ...चु ....ऽ ... प्पि ....ऽ... यां ....ऽ ...!!
सम्मोहिता-सी
मंत्रविद्धा-सी
वशीकृत ऊंघती परछाइयां!
ज्योतिर्वलय की पांखुरी है कैद
कुहरे की अकंपित वर्जनाओं में
गुफाओं में हुए हैं शब्द
निर्वासित
धुंधलका हो गया
गाढ़ा-गझिन है!
अंध-तम के अंतरालों पर उगे
नत-शीर्ष खंडित सेतु-सा
यह जन्म-दिन है!

और, फिर यह थरथराता-कांपता हिम-शीत!
विजड़ित हो गये जिसमें
सभी संबंध
सारे नेह-नाते
ग्लेसियर-से जम गये
पथरा गये रिश्ते
अपरिचय के हिमानी मौन में!

बस एक ठंडापन हुआ हावी
उमगते राग पर
संवेदना पर!
हिमनदी-सी सरसराती है रगों में!
ताप-ऊष्मा चुक गये!
हर सूर्यदेही बोध पर
हिम की शिला उभरी!
वनस्पतियां हरेपन से हुईं वंचित
अग्नि-गाथा निरंतर सह रही हिम-दंश
अब गर्मी नहीं है शेष!

सुन्नाया हुआ आकाश
पथरीली हुई धरती
न मानुष-गंध ही
बाकी हवाओं में
समूची आस्था जड़ हो गई है!

पर तुषारी धमनियों में
कंपकंपाती एक नन्ही बूंद-सी
जो यह तुहिन है!
बस इसी अवशेष का ही नाम
शायद जन्म दिन है!

समय के वक्ष पर लहरा रहा है केतु फागुन का!
बयारों में घुली फगुनौटियां
अंगड़ाइयां लेता हुआ
आया वसंती दिन!
रचाकर अल्पना आकाश में
हर ओर सतरंगे धनुष खिंचने लगे
मेहंदी
दिवस की झील में घुलने लगी!

लेकिन नशीली गंध
रंगों में नहीं है!
गुलमुहर मुरझा गये
पीले पलाशों में नहीं लालिम छुअन
सरसों नहीं अब फूलती!
पीले प्रसारों में
नहीं है शेष सम्मोहन!
गुलाबी गंध-वन का
हर कलश रीता

मधुर अहसास पर उभरा
कंटीला तीक्ष्ण शर तीता!
हुमक, उल्लास, उत्कंठा
हुई घायल
महकती अब नहीं
उत्फुल्ल शेवंती!

सजीला पुष्पधन्वा
ध्वस्त, भस्मीभूत
शापित यक्ष-सा
सूनी दिशाओं में भटकता है!

नजल करवट बदलता ताल में
रंगों-उमंगों की तरंगें
फेन-सी बुझने लगीं
सूखी सिवारें ओढ़कर
सोया हुआ है ताल!
गुमसुम, क्षुब्ध
अकुलाया नलिन है!
और इन सबकी ललक
भीतर संजोये
एक ईहामृग-सरीखा
जन्म-दिन है!

इस तरह ऋतु-चक्र
औंधा, वक्र, विकृत हो गया!
विचलित हुई
खंडित धुरी ऋतु-चक्र की!
उपहार है यह इस सदी का!

शीत-युद्धों में
पनपता है यहां पर आदमी
यह आदमी
जिसमें नहीं है सांस
कोई बोध!
सारी चेतना
बहते समय की धार में
होकर विसर्जित
लय हुई!
जड़ हो गईं संवेदनाएं!

यंत्र-चालित आदमी की धमनियों से
खो गया अहसास चीजों का!
बचे हैं खोखले, रीते ठहाके
कहकहों के झाग नीले पड़ गये
मुरझा गये चटके गिलासों में!
बबूलों की कंटीली झाड़ में
उलझे हुए संबंध
क्षत-विक्षत-हताहत हो रहे!

हिंसक समय के लौह पिंजरे में
विकल, व्याकुल, विवश
सुगना अकेला छटपटाता है
कटे पर फड़फड़ाता है
सशंकित मौन आंखों में
घुमड़ती वेदना का अश्रु-कण
प्यासी नदी-सा डबडबाता है!

सहजता आत्मीयता की मूक गौरैया
हुई गुमसुम, अवश, निस्पंद!
यह है
आदमी के यंत्र होने की अयाचित यंत्रणा!
उपराम होते क्षीण मन का द्वंद्व
क्षण-प्रतिक्षण!
निपट संज्ञा
निविड़ एकांत के संबोधनों से
छीजता, रिसता हुआ
निष्प्राण संवेदन!
जहां पर दस्तकें देती हथेली
खून से लथपथ हुई
लेकिन प्रतिध्वनि लौटकर आती नहीं!
कोई नहीं उत्तर किसी आवाज का मिलता!
न जाने किस अतल में घंस गई
यह भावनाओं की अगिन है!
और इस हिम-यातना को झेलता
यह जन्म-दिन है!

क्या करूं इस जन्म-दिन का!
जन्म-दिन है यह
कि बहती
जिन्दगी की धार से
उठता बबूला
है क्षणिक अस्तित्व जिसका!
फूट जाता जो
महज दो-चार पल के बाद
यों ही
ज्यों किसी संन्यस्त मन में
राग
कुछ पल को उभरकर
डूब जाये
लीन हो जाये
चिरंतन विगत-ज्वर निर्वेद में!

इस तरह
यह जन्म-दिन
हर वर्ष आता
फिर चला जाता
किसी सामान्य दिन-सा!
वीतरागी हृदय में
स्पंदन मगर होता नहीं है!

मोमबत्ती-से
पिघल जाते सभी संदर्भ
गुलदस्ते न गंधाते
बधाई और मंगलकामना के पत्र भी
आरोप-पत्रों से लगा करते
कि जैसे कह रहे हों-
‘जिन्दगी तुमने बड़ी ही बेहयाई से
अभी तक जी,
कहो
कब तक इसी ढब से जियोगे?
कटु हलाहल जिन्दगी का
मित्र, यों कब तक पियोगे?’

किन्तु मैं भी सोचता हूं-
जिन्दगी जीना
न हो गया अगर संभव
असंभव तो नहीं ढोना!
भले ही दे न पाये साथ
सहयात्री
बदल ले राह सहधर्मी
सिंदूरी मान्यताएं
भरभराकर ध्वस्त हो जायें
अनागत तोतली भाषा
न आंगन में रचे रंगोलियां!
लेकिन अभी है छांह
अक्षय-वट सरीखे पिता की
शीतल, छरहरी, मंद
तुलसी-गंध-सी मां की!

नहीं होगी कभी भी अस्तमित
संस्कारधर्मी आस्था
पारंपरिक अनुगूंज
वैष्णवधर्मिता की अस्मिता
परदुःखकातर!

इस विरासत को संजोना है
अकेले ही करूंगा पार
जीवन-पथ
भयंकर व्याधियों से भी लडूंगा!
यह सतत यात्रा
यही अविराम गति
निःशेष है अब भी!
चुकाना शेष है
सिर पर चढ़ा
जो पितृ-ऋण है!
और शायद याद इसकी ही दिलाता
जन्म-दिन है!
इस अनाहत आस्था का नाम ही तो
जन्म-दिन है!