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जब-जब / अज्ञेय

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     जब-जब कहता हूँ-
     ओः, तुम कितने बदल गये हो!
     जब-तब पहचान एक मुझ में जगती है।
     जब-जब दुहराता हूँ :

     अब फिर तो ऐसी भूल नहीं हो सकती-
     तब-तब यह आस्था ही मुझ को ठगती है।
     क्या कहीं प्यार से इतर
     ठौर है कोई जो इतना दर्द सँभालेगा?

     पर मैं कहता हूँ :
     अरे आज पा गया प्यार मैं, वैसा
     दर्द नहीं अब मुझ को सालेगा!

इलाहाबाद, 20 दिसम्बर, 1958