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जब कभी प्रतिरोध में जंगल खड़े हो जाएँगे / राहुल शिवाय

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जब कभी प्रतिरोध में जंगल खड़े हो जाएँगे
वक़्त की आँखों में दावानल खड़े हो जाएँगे

जिस तरह से गमले में बस बो रहे हरियालियाँ
सामने कुछ और भी मरुथल खड़े हो जाएँगे

आज पतझड़ ने है जिसकी सारी बाँहें ठूँठ कीं
उसपे कल संघर्ष के कोंपल खड़े हो जाएँगे

रोटियाँ थाली से ख़ुद ही मुँह तलक आतीं नहीं
कोशिशों से मसअले के हल, खड़े हो जाएँगे

जब पुकारेगी धरा, झूमेंगे तरुवर साथ में
तब गगन में ख़ुद ही घन-श्यामल खड़े हो जाएँगे

अब तेरे सानिध्य की चाहत नहीं मेरे ख़ुदा!
तेरे आते बेरुखी के पल खड़े हो जाएँगे

गर्दनें झुक जाएँगी चाहे हुकूमत हो कोई
जब श्रमिक सब अपने सिर के बल खड़े हो जाएँगे