भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब तुम मेरी ओर / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब तुम मेरी ओर अपनी अपलक आँखों से एक अद्भुत जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखते हो, जिस में संसार-भर की कोई माँग है, तब प्राणों के एक कम्पन के साथ मैं बदल जाती हूँ, मुझे एक साथ ही ज्ञान होता है कि मैं अखिल सृष्टि हूँ, और क्षुद्र हूँ, कुछ नहीं हूँ।
प्रियतम! प्रेम हमें उठाता है, या गिराता है, या उठने और गिराने मात्र की तुच्छ तुलनाओं से परे कहीं फेंक देता है...