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जब भी भोर खिली फूलों पर बिखरी शबनम होती है / रंजना वर्मा

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जब भी भोर खिली फूलों पर बिखरी शबनम होती है।
जाने किस दुख से यह रजनी लिपट धरा से रोती है॥

संरक्षक बन कोमलता के ही तो कांटे हैं उगते
चुपके चुपके हवा नशीले बीज स्वप्न के बोती है॥

हर पत्ती हरियाली खो कर है पीली पड़ती जाती
इसीलिए इन वृक्ष पिताओं की क्या आँखें रोती है॥

जब तब भ्रमर लुटेरों का दल उपवन में है घुस आता
लुट जाते हैं सुमन कली फिर भी मधुकोष सँजोती है॥

आदर्शों की लगी बोलियाँ गली-गली सच है बिकता
हुई आस्था बाँझ धरा भी अपना धीरज खोती है॥