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जहाँ पुरखे सो रहें हैं / रश्मि भारद्वाज

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लौटना सिर्फ़ एक शब्द मात्र नहीं है
इसके उच्चारण भर से लौटता है एक इतिहास
अव्यस्थित हो जाता है एक भूगोल

लौटते हुए तुम खोजते हो तुम्हारे पदचापों की पहचान से भरी पंगडंडियाँ
पर वे सब की सब या तो नष्ट हो चुकी होतीं हैं
या कि अनचीन्हेपन की गंध से भर जाती हैं
वापसी के रास्ते में चंद कदमों की दूरी पर ही दिखाई देता है तुम्हें अपना घर
पर उसके मुख्य द्वार पर लटका है रिवायतों का जंग लगा मोटा ताला
और तुम्हारे लिए प्रवेश निषिद्ध की अघोषित तख़्ती
फिर भी तुम्हें लौटना ही होता है
उस मिट्टी में जहाँ पुरखे सो रहे हैं
उस धरती की छाती पर कान धरो तो पाओगे कि वहाँ पाश्चाताप की साँसे अब भी धौंकनी सी चल रहीं हैं
उलीचो तो हाथ सन सकते हैं रक्त के जमे हुई थक्कों से

तुम्हारी एड़ी में निर्वासन का तीर धँसा है
माथे पर है अंकित है बहिष्कार की लिपि
उनका दंश तुम्हें लौटा ही ले जाता है एक दिन पीछे की ओर
उस दहलीज़ पर जहाँ कहीं गाड़ी गयी होगी उनकी नाभिनाल
उस मिट्टी में जहाँ गिरे हैं उनके स्वेद कण
उस हवा में जहाँ घुली है उनकी देह गंध
उस जल में जहाँ विसर्जित है उनकी राख

अपनी तमाम शिकायतों को भूलकर लौटना वहाँ
सिर को नत और होंठों को मौन रखना
जहाँ एक लंबे शापग्रस्त जीवन के बाद
मुक्ति की नींद तलाशते
प्रार्थनारत हैं पुरखे
ताकि तुम भी शताब्दियों के शाप से मुक्त हो सको