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ज़िंदगी में कुछ भी नहीं / हरिवंश प्रभात

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ज़िंदगी में कुछ भी नहीं, और ज़्यादा दरकार है,
खूबसूरत ख्वाब है, विश्वास है और प्यार है।

देखिए अहले सुबह फूलों की सतरंगी छटाएँ
खुशबुओं से है सुवासित प्रकृति की संगी अदाएँ
मन में भरले खुशियों का अनुपम मिला संसार है।

है अंधेरा जानेवाला, पत्थरों में है ज़ुबान
जागते रहना प्रहरी-सा, कह रहा तेरा उत्थान,
पाँव पड़ते जिस घड़ी वह लम्हा एक ललकार है।

छलकी हैं शबनम किसी की शुष्क आँखों से अगर
पी लो उसके आँसुओं को, जीत लो संकट समर,
इंसानों के बीच में अब ना कोई दीवार है।

जब कभी अवसर मिले उसे यादगार बनाइये
प्रेम से काँटे मिलें तोहफा समझ अपनाइये,
बुलन्द हो जब हौसला तो क्या करे मझधार है।

ज़िंदगी का क्या मकसद, हम सभी अनजान हैं
देखकर सुख दूसरे का, क्यों हो रहे परेशान हैं,
है तेरा ‘प्रभात’ साक्षी, संतोष में सुखसार है।