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ज़िन्दगी में जो इक ख़ुशी -सी थी / परमानन्द शर्मा 'शरर'

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ज़िन्दगी में जो इक ख़ुशी-सी थी
हाय वोह कितनी आरज़ी-सी थी

उनसे मिलने को जी तरसता था
उनसे मिलने पै बेकली-सी थी

बज़्म में जब हमें पुकारा गया
हर तरफ़ एक खलबली -सी थी

कुछ हमें उनका रूप ले डूबा
कुछ तबीयत की सादगी-भी थी

दीनो-दुनिया से बेख़बर हो कर
इक अजब हमको आगही-सी थी

क्या मिले वो कि गोया नस-नस में
बह उठी एक बाँसुरी-सी थी

किस ने छीना चमन से रंगे चमन
सहमी-सहमी-सी हर कली-सी थी

हम ‘शरर’ सर -बुलन्द हो के जिये
ज़िन्दगी अपनी ज़िन्दगी-सी थी