भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िन्दगी लगने लगी है क्यों अचानक सख़्त ये / ब्रह्मजीत गौतम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िन्दगी लगने लगी है क्यों अचानक सख़्त ये
किस बियाबाँ में हुआ गुमराह मेरा बख़्त ये

ठीक रक्खा कीजिए ख़म अपनी ज़ुल्फ़ों के हुज़ूर
उलझनों में डाल देते हैं मुझे कमबख़्त ये

आपके रुख़सार की ताबिंदगी का क्या कहें
सौ दफ़ा क़ुर्बान इस पे दिल के ताजोतख़्त ये

रूठ कर जब से गये हम से हमारे जाने जाँ
बेसबब लगने लगे हैं दिलकशी के रख़्त ये

रफ़्ता-रफ़्ता ज़िंदगी से हम भी रुख़सत हो चले
इश्क़ में कब तक सँभालें हम जिगर के लख़्त ये

‘जीत’ दरिया पार करना इश्क़ का आसाँ नहीं
छोड़ दे रब के भरोसे ज़िंदगी की यख़्त ये