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ज़िह्न पर एक सियह्पोश घटा छाई है / ज़ाहिद अबरोल

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ज़िहन<ref>मस्तिष्क</ref> पर एक सियहपोश<ref>काली, शोकाकुल,शोकग्रस्त</ref> घटा छाई है
हम को बिकते हुए सूरज की ख़बर आई है

फ़िक्र-ओ-एहसास<ref>सोच और अनुभूति</ref> की वुस्अत<ref>विस्तार</ref> में बिखरती हुई ज़ीस्त<ref>ज़िंदगी</ref>
फिर उसी रैनबसेरे में सिमट आई है

जब कभी टूटी खिलौनों की तरह मेरी हयात<ref>ज़िंदगी</ref>
ख़ुद से भी तोड़ने वालों से भी शर्माई है

भूल जायेंगे सभी अहद-ए-ख़ज़ां<ref>पतझड़ का दौर</ref> की सख़्ती
एक आवाज़ लगा दो कि बहार आई है

कुछ न कुछ अपने ही अंदर मैं छुपा लेता हूं
दिल की हर बात न होंठों पे कभी आई है

हर कोई जान गया है तिरे जीने का सबब<ref>कारण</ref>
अब तो “ज़ाहिद” तिरे मरने में भी रूस्वाई है

शब्दार्थ
<references/>