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जाग्रत स्वप्न / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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मेरे मर्म की आँखों में
तुम गुलाब की
एक नर्म पंखुड़ी सी
चुभ गई हो
तुम्हारी साँसों की
गर्म चुभन का
मीठा-सा दर्द
अब भी मेरे सीने में है
मेरी भावुकता की खिड़की से
रेशमी सपनों का
पर्दा उठाकर
तुम्हारी सुधियों की
हवा आती है
मुझे छूती है
और मैं भूल जाता हूँ
कि मैं कौन हूँ
और जब कभी भी
भींगने लगती हैं पलकें
मैं मुस्कुरा उठता हूँ
मेरा दर्द मुस्कुरा उठता है
एक तुम्हारी याद का दर्द है
जो न हो
तो गीतों की फ़सल
सूख जाए
एक तुम्हारी याद है
जो आए
तो मैं गुनगुना उठूँ!
आज रजनीगंधा की
डोली पर चढ़कर
तुम्हारी मधुगंधा याद आई है
और मैंने
उसे गीतों की सेज पर
सुलाकर चूम लिया है।
तुम्हारी याद के गालों पर
लाली है
मैं जगा हुआ हूँ
और सपना देख रहा हूँ
जाग्रत स्वप्न...
जहाँ तुम नहीं
तुम्हारी याद के साथ
अकेला मैं हूँ।