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जिंदगी के हर सफर में, हमसफर बनकर रहे पर / प्रदीप कुमार 'दीप'

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जिंदगी के हर सफर में, हमसफर बनकर रहे पर,
रूप का अभिमान तजकर, मन समर्पित कर न पाए॥

सूर्य की आराधना को, विश्व का पाखंड कहकर,
जुगनुओं से नित्य माँगा, एक चुटकी भर उजाला।
आँधियों को दे समर्थन, दीपकों के सँग खड़े हो,
कौन जीतेगा लड़ाई, बोलकर सिक्का उछाला॥

रोज खरपतवार पूजे, जुल्म कांटों के सहे पर,
दिव्य तुलसी के लिए आँगन समर्पित कर न पाए॥

धूर्तता के शस्त्र थामे, दंभ के रथ पर खड़े हो,
रौंद कर कदमों तले सब, प्रेम की संभावनाएँ।
कुछ नये सिद्धांत प्रतिपादित किए मक्कारियों के,
भूलकर मौलिक मुहब्बत की सभी अवधारणाएँ॥

साधनाओं की समीक्षा में लगे नित ही रहे पर,
जो जरूरी थे बहुत साधन समर्पित कर न पाए॥

मानकर यह वक्त का उपहार है अपने लिए ही,
दर्द सीने में समेटे, पीर को पीते रहे हम।
डबडबाए चक्षुओं में सिंधु सातों "दीप" लेकर,
भूख के अम्बर के नीचे प्यास को जीते रहे हम॥

देखकर अधरों को सूखा शब्द दो नित ही कहे पर,
प्यास को मेरी कभी सावन समर्पित कर न पाए॥