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जिजीविषा / शशि सहगल

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मेरे वे आकाश-से खुले दिन
बह गये हैं
वक्त के साथ-साथ
मर गई है कविता
कहीं अन्दर-ही-अन्दर।
दुनियादारी की बाढ़ में
विवश-सी देख रही हूँ मैं
खुद को
मरते हुए।