भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिसको काँटा नहीं चुभा होगा / राजीव भरोल 'राज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जिसको काँटा नहीं चुभा होगा,
वो कहाँ रात भर जगा होगा.

धुंध बिखरी हुई है आंगन में,
उसने बादल को छू लिया होगा.

दिल की बस्ती में रौशनी कैसी,
वो इसी राह से गया होगा.

जम के बरसा था रात भर बादल,
ज़ख्म कच्चा था खुल गया होगा.

बंद कर के सभी झरोखों को,
मन की खिड़की वो खोलता होगा.

उसकी हर बात है गज़ल जैसी,
घर में खुशबू बिखेरता होगा.

मतलबी इस कदर नहीं था वो,
शहर आदत सी बन गया होगा.

कितने हिस्सों में बट गई खुशबू,
तुम ये कहते थे क्या नया होगा?