भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे / भारत भूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे
ढूँढते फिरोगे लाखों में

फिर कौन सामने बैठेगा
बंगाली भावुकता पहने
दूरों दूरों से लाएगा
केशों को गंधों के गहने
ये देह अजंता शैली सी
किसके गीतों में सँवरेगी
किसकी रातें महकाएँगी
जीने के मोड़ों की छुअनें
फिर चाँद उछालेगा पानी
किसकी समुंदरी आँखों में

दो दिन में ही बोझिल होगा
मन का लोहा तन का सोना
फैली बाहों सा दीखेगा
सूनेपन में कोना कोना
किसके कपड़ों में टाँकोगे
अखरेगा किसकी बातों में
पूरी दिनचर्या ठप होना
दरकेगी सरोवरी छाती
धूलिया जेठ वैशाखों में

ये गुँथे गुँथे बतियाते पल
कल तक गूँगे हो जाएँगे
होंठों से उड़ते भ्रमर गीत
सूरज ढलते सो जाएँगे
जितना उड़ती है आयु परी
इकलापन बढ़ता जाता है
सारा जीवन निर्धन करके
ये पारस पल खो जाएँगे
गोरा मुख लिये खड़े रहना
खिड़की की स्याह सलाखों में