भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिस पर बीता / अरुण कमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक औरत पूरे शरीर से रो रही थी
एक पछाड़ थी वह
हाहाकार

उससे बड़ी एक औरत उसे छाती से
बांधे हुई थी पत्थर बनी
और एक रिक्शा खींच रहा था लगातार
चुप एकटक पैडल मारता

हर घर हर दुकान को उकटेरता
पूरे शहर में घूम रहा था हाहाकार।