भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन-मरण / आराधना शुक्ला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दीप अनगिन जगमगाये पर तिमिर छाया घना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

पीर का कारुण कथानक, पात्र भी पुतले चुने हैं
वास्तविकता है धरातल दृश्य आकाशी बुने हैं
सूत्रधर भी है अबूझा, और मंचन अनमना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

बस तनिक सुख-मेघ बरसे, दामिनी दुख की सताये
यदि पवन आनंद दे तो कष्ट का आतप तपाये
कर्म की कुटिया कि जिसपर भाग्य का छप्पर तना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

हर्ष के कंदील भीतर शोकमय सारंग जले है
वर्तिकाओं को ह्रदय की द्वेष की आँधी छले है
द्वार पर पीड़ा का तोरण अश्रुपूरित अल्पना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है

यातनाओं की नदी है, प्राण का यह कूल पकड़े
देह के जर्जर महल को त्रास की लहरें हैं जकड़े
और सीपी मन, कि जिसनें भाव का मोती जना है
इस धरा के लोक में जीवन-मरण उत्सव बना है